भारत में सभी शिक्षा का माध्यम हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाएं होना चाहिय्.
किसी ने सही कहा है कि ,”बच्चा जिस भाषा में रोता है वही उसकी मातृभाषा कहलाती है.” जब भाषा की बात आती है तब स्वाभाविक तौर पर उससे जुडी हर बात भावुकता से जुड जाती है. भारतीय सभ्यता में भाषा को माता का स्वरुप माना जाता है. हर मनुष्य की तीन माताएं होती है. उसकी मातृभूमि, उसकी मातृभाषा और उसको पैदा करने वाली माता. इन तीनों माताओं का ऋण चुकाना हर मनुष्य का धर्म है. इन वाक्यो को पढकर आपके अंदर जो भाव उत्तपन्न हुये वे सारे भाव भाषा के प्रति आपके परिचय का परिणाम है. यदि यही बात यहुदी में लिखी जाये तो वह आपके लिये इतनी भावुकता पैदा करने वाली नहीं होगी जितनी आपकी मातृभाषा से उत्तपन्न होती है. शिक्षा के माध्यम को लेकर आये दिन कई बहस होती रहती है. जिसमे से अधिकांश निरर्थक होती है. पर मेरा एसा मानना है कि इन्सान जिस पृष्ठभुमि से आता हो और वहां जिस भाषा का प्रयोग होता है उसी माध्यम मे उसे शिक्षा मिलनी चाहिये. अपनी मातृभाषा मे शिक्षा पाना हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार भी है और उसका सौभाग्य भी. इसी के चलते भारत के कई राज्यो में भाषा बचाव आंदोलन प्रायः होते रहेते है. विषय का पक्षधर बनने की और मुझे भाषा की परिभाषा अत्यधिक प्रेरित करती है.
सेपिर के अनुसार, “मानवीय विचारो एवम भावनाओ को अभिव्यक्त करने वाली ध्वनिरुप व्यवस्था को भाषा कहते है.”
अर्थात मनुष्य की दो अनमोल विरासत वैचारिक समृध्धि एवम मानवीय संवेदना का स्वरुप कही जाने वाली भावनाओ की प्रतीकात्मक व्यवस्था. इस परिभाषा से स्पष्ट है कि भाषा मानवीय भावनाओ एवम विचारो की द्योत्तक है. भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आंतरिक एवं बाह्य सृष्टी के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है।
सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा-वैज्ञानिकों के अनुसार ‘‘भाषा या दृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परम्पराओं एवं विचारों का आदान-प्रदान करता है।’’ स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है-
(१) भाषा एक पद्धति है, यानी एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं।
(२) भाषा संकेतात्मक है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं।
(३) भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अंतर्गत आते हैं।
(४) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है – ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा।
हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। और भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक ‘प्रतीक-स्थिति’ है। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति – एक वह जो संबोधित करता है, दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी सांकेतिक वस्तु और चौथी – प्रतीकात्मक संवाहक जो सांकेतिक वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है।
विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी उच्चापण-प्रक्रिया, शब्द-भंडार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं।
इस विषय के पक्ष में कुछ दलीलेः
०१. मानवीय सभ्यता का एक अभिन्न हि स्साः मानवीय सभ्यता की कई धरोहरो की तरह भाषा भी एक धरोहर है. वह उस सभ्यता की पहचान है और उस सभ्यता का एक अनूठा स्वरुप भी. एक पूरी समाजव्यव्स्था भाषा के माध्यम से ही व्यकत होती है. कई मानव सभ्यताओं के बारे में हमे भाषा के माध्यम से ही जानकारी मिलती है.
०२. व्यवहारिकता की दृष्टि सेः उदाहरण के तौर पर हम एक शब्द लेते है “नीम का पेड” जिसे अंग्रेजी मे “नीम ट्री” कहा जाता है. जब हम अंग्रेजी में नीम ट्री बोलते है तब हम सिर्फ एक पेड का जाती वाचक नाम बोल रहे हो एसा महसुस होता है पर जब हम “नीम का पेड़” बोलते है तब वही “नीम का पेड़” यह शब्दो का समुह शीतलता का अहसास कराता है जो नीम के पेड़ से मिलती है. अर्थात जो शब्द अन्य भाषा में केवल एक जानकारी के तौर पर महसूस हुआ वह मातृभाषा में पेड़ के गुण का अनुभव भी करता है, यानि की हर शब्द के साथ एक भाव जुडा रहता है. अन्य भाषा में शिक्षा प्रदान करने से यह मर्यादा बन जाती है कि विधार्थी जानकारीप्रद बनता है पर वह मानवीय गुणो का अह्सास नहीं कर पाता..!
०३.युनाईटेड नेशन्स की एक रिपोर्ट में दो बाते सामने आई :
०१.अधिकांश बच्चे स्कुल जाने से कतराते है क्योंकि उनकी शिक्षा का माध्यम वह भाषा नहीं है जो भाषा घर में बोली जाती है.
०२. युनो के बाल अधिकारो के घोषणा पत्र में भी यह कहा गया है कि बच्चो को उसी भाषा में शिक्षा प्रदान की जाये जिस भाषा का प्रयोग उसके माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन एवं सारे पारिवारिक सदस्य करते हो.
०४.विवरणो के अनुसारः अनुसंधानो के अनुसार हमारी पठनगति मातृभाषा में अधिकाधिक होती है क्योंकि उसके सारे शब्द परिचित होते है. अन्य माध्यम से पढने वाले बच्चो को दो भाषाओ का बोझ ऊठाना पडता है. और मासुम बच्चे यह भार सहन नहीं कर पाते. परिणामतः बच्चे दोनो भाषाओ के साथ न्याय नहीं कर पाते. और उनकी पठनक्षमता क्रमशः कम होती जाती है. इसे “न्युरोलोजीकल थियरी ओफ लर्निंग” कहते है जो वैश्विक स्तर पर स्वीकृत है.
०५.भाषा एक माध्यम है न कि प्रतिष्ठा का प्रतीक : भाषा एक माध्यम है जिसके तहत हम इस सृष्टि के विभिन्न पहलुओ को जान पाते है. जिसके माध्यम से हम अपने विचारो को अभिव्यकत कर पाते है. अपनी संवेदनाओ को मुर्तरुप दे पाते है. पर इसे एक प्रतिष्ठा का प्रतीक मानकर कई माता-पिता क्षेत्रीय भाषाओ की अवहेलना कर अन्य भाषाओ में अपने बालकों की शिक्षा करवाते है.
०६.विश्व में भाषा का महत्व : यदि हम विश्व के अन्य देशो का अभ्यास करे तो यह प्रतीत होता है कि वे क्षेत्रीय भाषा को कितना महत्व देते है.स्विडन में स्वीडीश-फिन्लेन्ड में फिनीश -फ्रान्स में फेन्च- ईटली में रोमन- ग्रीस में ग्रीक- जर्मनी में जर्मन- ब्रिटन में अंग्रेजी- चाईना में चाईनीझ और जापान में जापानीझ भाषाएँ शिक्षा का माध्यम है. यदि हम यह सोचते है कि विकास को बढावा देने के लिये शिक्षा का माध्यम कोइ आंतरराष्ट्रीय भाषा ही मददगार साबित होगी तो यह हमारा भ्रम है. जापान में जापानीझ का इस्तेमाल होता है फिर भी वह देश तकनीकी दृष्टि से विश्व में आगे है. चाईनीझ बोलनेवाली प्रजाति विश्व की सर्वोपरी महासत्ताओ में से एक कही जाती है.
०७.स्वाभिमान के तौर पर भाषा : हर भाषा एक मानव सभ्यता का प्रतीक होती है. वह कई कालखंडो से गुजरकर मानवीय सभ्यता के विशेष गुण एवं लक्षणों को धारण किये होती है. यदि हम भारतीय इतिहास को ही देखे तो भारत के राज्यों के विभाजन में भाषाओं का स्थान अहम रहा है. ऐसे कई उदाहरण है जहां भाषाई दंगे भी हुये है. यह भाषा के प्रति लगाव एवं उससे उत्तपन्न होनेवाले स्वाभिमान को दर्शाती है.
०८.क्षेत्रीय भाषाओं क प्रभाव : बीते दिनो में हमने यह देखा है कि आम जबान में जो गाने बॉलीवुड में बने वह ज्यादा लोकप्रिय है. जैसे मुन्नी बदनाम हुई, कजरारे कजरारे आदि. जबकि अन्य विदेशीभाषा के प्रभाव वाले गाने उतने प्रभावी नहीं हुये और अगर हुये भी तो वे अपवादरुप है.और इसी तरह जब हम विज्ञापनो को देखते है तो उसमे अंग्रेजी प्रधान विज्ञापनों से अधिक हिन्दी में बने विज्ञापन अत्यधिक आकर्षित करते है.हॉलीवुड द्वारा निर्मित कई फ़िल्मो का हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं मे इसी वजह से डब की जाती है.
अंत मे कहने का तात्पर्य यही है कि अन्य भाषाएँ हमारी सहायक बन सकती है पर उध्धारक नही.अतः भारत में हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा मे ही शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए.
મે 31, 2011 પર 4:19 પી એમ(pm) |
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