01.
क्लस्टर विकास – सूक्ष्म और लघु उद्यमों की सतत वृद्धि का उपकरण=संजीव चावला *
व्यापार गतिविधियों के किसी एक विशेष क्षेत्र में समान चुनौतियों, समान मार्गावरोधों, समान अवसरों और समान विकासात्मक एजेंडों के साथ ज्ञान और अन्य आर्थिक कड़ियों के ज़रिए अन्य हितधारकों समेत, एक दूसरे से संबद्ध सूक्ष्म और लघु उद्यमों का संकुलन क्लस्टर है। देश में सूक्ष्म और लघु उद्यमों की उत्पादकता, प्रतिस्पर्धा तथा साथ ही क्षमता निर्माण और सामूहिक संगठन को बढ़ावा देने के लिए एक प्रमुख रणनीति के तौर पर सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के मंत्रालय ने क्लस्टर विकास योजना को अपनाया है। समय के साथ-साथ क्लस्टर विकास पहल का विकास हुआ है और अब ‘‘सूक्ष्म और लघु उद्यम- क्लस्टर विकास कार्यक्रम’’ (एमएसई-सीडीपी) योजना के तहत इसे लागू किया जा रहा है।
एमएसई क्षेत्र को भारत में विकास के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार 2010 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद [क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के आधार पर] 3,862.009 बिलियन ( वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय) डॉलर है। भारतीय एमएसई क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद में आठ प्रतिशत, विनिर्मित उत्पादों में 85 प्रतिशत और निर्यात में 40 प्रतिशत का योगदान देता है। अपने 26 मिलियन उद्यमों के ज़रिए एमएसई लगभग 60 मिलियन लोगों को रोज़गार मुहैया कराता है इसलिए सकल घरेलू उत्पाद के आठ प्रतिशत योगदान के ज़रिए एमएसई क्षेत्र का योगदान 308.96 बिलियन डॉलर है। इस क्षेत्र के व्यापक योगदान और समस्त औद्योगिक विकास दर के मुकाबले इसकी उच्च वृद्धि दर को देखते हुए निजी क्षेत्रों के साथ गठजोड़ कर विशेषीकृत ज्ञान और नवीनता आधारित संस्थानों की स्थापना समेत नीति निर्माण, परामर्श और सेवा विस्तार के ज़रिए इस क्षेत्र के प्रयासों को बढ़ावा देना चाहिए।
क्लस्टर विकास कार्यक्रम का उद्देश्य क्लस्टर कहे जाने वाली औपचारिक संस्था के तले लाभार्थियों के समूह के नेतृत्व में सूक्ष्म और लघु उद्यमों को एकजुट करना और क्लस्टर की सभी इकाइयों के लाभ के लिए प्रशिक्षण, दिशा-निर्देश, व्यापार विकास, सलाह, हिमायत, समान सुविधा केन्द्र (समान प्रारूप केन्द्र, प्रयोग सुविधांए, प्रशिक्षण केन्द्र, महत्वपूर्ण ऑपरेशनों के लिए प्रसंस्करण केन्द्र, आर एंड डी केन्द्र, कच्चे माल के समान बैंक, अपगामी उपचार संयंत्र, वगैरह) के विभिन्न कार्यक्रमों को शुरु करना है। स्थानीय औद्योगिक परिवेश और वृहत स्तर के काम के तरीकों पर क्लस्टर से संबंधित नीति, समर्थन और विकासात्मक गतिविधियों का काफी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है।
सूक्ष्म और लघु उद्यम अकसर इस स्थिति में नहीं होते कि अपनी गतिविधियों के लिए मंहगे उपकरणों को स्थापित कर सकें, बड़े ऑर्डर ले सके और अपने सीमित पूंजी आधार और सीमित कार्यक्षेत्र अनुभव के कारण अधिक पूंजी का निवेश भी नहीं कर सकते। हालांकि, वर्तमान भौगोलिक परिवेश में क्लस्टर विकास कार्यक्रम के जरिए सूक्ष्म और लघु उद्यम प्रतिस्पर्धा के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। भारत में एमएसई क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने में क्लस्टर विकास के दृष्टिकोण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और यह एक सफल उपकरण साबित हुआ है। संसाधनों और आर्थिक मापकों की तैनाती के अतिरिक्त क्लस्टर विकास का दृष्टिकोण उद्योग में नेटवर्किंग, सहयोग और एकजुटता को बढ़ाता है, जिससे उद्यम लंबी दौड़ में प्रतिस्पर्धा हासिल कर सकें। देश और विश्व के बड़े पैमाने के क्षेत्रों के लिए क्लस्टर विकास दृष्टिकोण सूक्ष्म और लघु उद्यमों का प्रत्युत्तर है।
क्लस्टर विकास दृष्टिकोण को व्यापार रणनीति का हिस्सा होना चाहिए । यह समय की मांग है और सूक्ष्म और लघु उद्यमों की ज़रुरतों के हिसाब से प्रासंगिक है। बड़ी इकाइयों को प्रतिस्पर्धात्मक दरों पर उच्च गुणवत्ता के उत्पाद मुहैया कराने के जरिए एमएसई क्षेत्र का उन्नयन बड़े पैमानों के क्षेत्रों को भी लाभ पहुंचाता है। क्लस्टर विकास दृष्टिकोण एमएसई मंत्रालय के द्वारा राष्ट्रीय विनिर्माण प्रतियोगात्मक कार्यक्रम (एनएमसीपी) के तहत हाल में शुरु की गई अधिकांश योजनाओं जैसे प्रारूप क्लिनिक योजना, विनिर्माण योजना, बौद्धिक संपत्ति अधिकार योजना का अभिन्न अंग है। इन योजनाओं ने क्लस्टर विकास दृष्टिकोण के लाभ को उनके प्रारूप से लेकर उनके लागू होने तक अपनाया है। क्लस्टर विकास दृष्टिकोण ने नीति निर्माताओं, सुविधादायकों, प्रदाताओं और व्यापार विकास सेवा प्रदाताओं को उद्योगों के साथ बातचीत करने और लागत प्रभावी तथा प्रभावदायक रुप में उत्पाद संप्रेषित करने का एक बेहतरीन मंच प्रदान किया है।
एमएसई-सीडीपी के तहत निदान अध्ययन रिपोर्ट के लिए अधिकतम 2.50 लाख रूपए की अनुदान राशि की सहायता प्रदान की जाती है, प्रशिक्षण, प्रदर्शन, तकनीकी उन्नयन, ब्रांड की हिस्सेदारी, व्यापार विकास वगैरह के लिए प्रति क्लस्टर अधिकतम 25 लाख रूपए की परियोजना लागत का 75 प्रतिशत [पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों के लिए 90 प्रतिशत, 50 प्रतिशत से अधिक क्लस्टर (अ) सूक्ष्म/ग्राम (ब) महिलाओं के स्वामित्व वाले (स) अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति इकाइयां], विस्तृत परियोजना रिपोर्ट के लिए पांच लाख रूपए तक, समान सुविधा केन्द्र के लिए अधिकतम 15 करोड़ रुपए की परियोजना लागत का 70 प्रतिशत [पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों के लिए 90 प्रतिशत, 50 प्रतिशत से अधिक क्लस्टर (अ) सूक्ष्म/ग्राम (ब) महिलाओं के स्वामित्व वाले (स) अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति इकाइयां], बुनियादी विकास के लिए ज़मीन की लागत के अतिरिक्त दस करोड़ रुपए की परियोजना लागत का 60 प्रतिशत [पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों के लिए 80 प्रतिशत, 50 प्रतिशत से अधिक क्लस्टर (अ) सूक्ष्म/ग्राम (ब) महिलाओं के स्वामित्व वाले (स) अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति इकाइयां]
क्लस्टर विकास पहल के दो प्रमुख स्तंभ विश्वास और भरोसे का निर्माण है। शुरू में क्लस्टर विकास कर्ताओं द्वारा विचारों और व्यापार के अवसरों को दूसरों के द्वारा हड़प लिए जाने की शंकाओं का निवारण, विश्वास और भरोसे के निर्माण जैसे कदमों से हुआ जो कि क्लस्टर विकास का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। औद्योगिक क्लस्टरों में ज्ञान आधारित आर्थिक व्यवस्था के वर्तमान परिवेश में संघों के निर्माण, स्वयं सहायता समूह और सक्रिय जुड़ाव से मुद्दे पर आधारित रणनीतिक कदम लाभ दिलाने में मददगार हो सकता है।
क्लस्टर विकास का नजरिया और दर्शन उद्योग को प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में पहुंचा सकता है। बड़े पैमाने के उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मक व्यापारिक रणनीति से निपटने के लिए सूक्ष्म और लघु उद्यमों के पास यह एकमात्र हथियार है। क्लस्टर विकास के तरीके के महत्व और प्रासंगिकता को देखते हुए बहुत से विभागों और मंत्रालयों ने क्लस्टर विकास कार्यक्रम के विविध प्रारुपों की शुरुआत की है। हालांकि अधिकतर कार्यक्रम किसी निश्चित क्षेत्र पर आधारित हैं, एमएसई-सीडीपी योजना देशभर के सभी एमएसई क्षेत्र को संबोधित करती है। फिर भी प्रयासों की सहक्रियता और स्पष्ट प्रभाव प्राप्त करने के लिए विविध मंत्रालयों/विभागों, निजी क्षेत्र की एजेंसियों, अंतर्राष्ट्रीय/बहुपक्षीय एजेंसियों की विविध पहलों/योजनाओं को समकालिक/परस्परानुबंधित करने की ज़रुरत है। प्रयासों को समर्थित करने और इससे गुणात्मक मूर्त परिणाम प्राप्त करने के लिए विविध योजनाओं को सराहा जा सकता है।
यह बेहद जरुरी है कि सूक्ष्म और लघु उद्यम तथा उनसे जुड़े संगठन एकजुटता के दर्शन को समझें और क्लस्टर विकास के दृष्टिकोण के ज़रिए प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए अपनी शंकाओं का निवारण करें। संगठनात्मक नज़रिए की बदौलत ही छोटे पैमाने की इकाइयों के लिए कच्चे माल की बड़ी खरीद, विशाल ऑर्डर को स्वीकार करने, अधिशेष सेवाओं को साझा करने और समान सुविधा केन्द्र में हिस्सा लेने में, सौदा करने की शक्ति संभव है।
क्लस्टरिंग प्रयासों में सफलता बढ़ाने के लिए राज्य सरकारों और इनसे जुड़ी समितियों की अग्रसक्रिय भागीदारी की काफी ज़रुरत है। प्रदर्शन केन्द्रों/समान सुविधा केन्द्रों को स्थापित करने के लिए ज़मीन का प्रबंध एक प्रमुख मुद्दा है जिसे राज्य सरकार के द्वारा सुलझाने की ज़रुरत है। इस प्रकार की साझेदारियां क्लस्टर विकास नज़रिए की विजेता होनी चाहिए और क्लस्टर दृष्टिकोण के परीक्षित लाभों को प्राप्त करने में सूक्ष्म और लघु उद्यमों को सुविधा दिलाने वाली। उद्यम विकास और निरन्तरता की क्षेत्रीय/स्थानीय गत्यात्मकता के अनुसार नवीनता आधारित ज्ञान में हस्तक्षेप करने के कई अवसर और मौके हैं।
क्लस्टर विकास प्रणाली को शुरु करने के बाद से, सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों के मंत्रालय ने एमएसई-सी़डीपी योजना के तहत देश के 28 राज्यों और एक संघ शासित प्रदेश (दिल्ली) में, 470 से भी अधिक क्लस्टरों में क्लस्टर विकास पहल (निदान अध्य्यनों, नर्म हस्तक्षेपों, और समान सुविधा केन्द्रों) का बीड़ा उठाया है। विभिन्न औद्योगिक भूसंपत्तियों/ औद्योगिक क्षेत्रों में बुनियादी विकास के लिए 124 (मौजूदा औद्योगिक भूसंपत्तियों में उन्नयन के लिए शामिल 29 सहित) प्रस्तावों को लिया गया है। इन परियोजनाओं में लघु और अति लघु इकाइयों को 10972 प्लॉटों का आवंटन किया गया है। 37555 रोज़़गार उत्पति को प्राप्त कर लिया गया है। सुनिश्चित उदाहरणों के द्वारा क्लस्टर विकास की उपलब्धियों को समझाया जा सकता है। तमिलनाडु में पिछले वर्ष एमएसई-सीडीपी के तहत छह (विरुद्धुनगर, सत्तूर, कोविलपट्टी, कलुगुमलाई, श्रीविल्लीपुट्टुर, गुडिअत्थम) हस्तनिर्मित माचिस की तीलियों के क्लस्टर। दो हज़ार से भी अधिक हस्तनिर्मित माचिस की विनिर्माण इकाईयों में प्रत्येक विकसित केन्द्र में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरीकों से लगभग 2.5 लाख लोगों के रोज़गार के साथ यह कारीगरी की तरह के क्लस्टर हैं। कारीगरी वाले यह क्लस्टर मशीनीकृत खिलाड़ियों से प्राप्त होने वाली प्रतिस्पर्धा को नहीं झेल पा रहे थे। तमिलनाडु सरकार के सक्रिय सहयोग और योगदान से एक तरह के सोच वाले उद्यमों के समूह द्वारा छह संघों का गठन हुआ, जिसमें प्रत्येक समूह में 25 से 30 सदस्य थे।
सामुदायिक आंदोलन के तहत उनके कार्यकलापों को मापने के लिए माचिस के क्लस्टर ने एक सहक्रियात्मकता की स्थापना की है। माचिस के क्लस्टर के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं- आंतरिक इलाकों में रोज़गार अवसरों के निर्माण की शुरुआत, युनाइटेड मैच के नाम से छह संघों नें समान ब्रांड का निर्माण किया, समान वेबसाइट की शुरुआत, 25 प्रतिशत के लागत लाभ के साथ तमिलनाडु सरकार के सहयोग से कच्चे माल के समान बैंक का निर्माण, पिछडों का एकीकरण, सल्फर मुक्त माचिस, प्रसंस्करण के समान तरीके और एकरुप गुणवत्ता के विनिर्माण के लिए आर एंड डी। पीतल और जर्मन सिल्वर के बर्तनों के एक अन्य क्लस्टर विकास की पहल में परेब, पटना में छोटे-मोटे परिवर्तन और समान सुविधा केन्द्र की स्थापना से विलक्षण परिणाम सामने आए हैं। 2004-05 में 23.50 करोड़ रुपए से 2008-09 में 69 करोड़ रुपए तक क्लस्टर के कारोबार में लगभग तीन गुणा वृद्धि हुई है। रद्दी टुकड़ों को गलाने के लिए ऊर्जा की लागत में भी कमी आई है। फेरबदल के बाद क्लस्टर में रोज़गार में 4000 से 5000 की वृद्धि हुई है।
एमएसई-सीडीपी के दिशानिर्देशों को फरवरी 2010 में धन मुहैया कराने में वृद्धि और प्रक्रियाओं को आसान बनाने के लिहाज से संशोधित किया गया था। राज्य सरकार सहित विभिन्न हितधारकों के बीच बढ़ती जागरुकता की वजह से निकट भविष्य में यह योजना एक बड़ी छलांग लगाने को तैयार है। अगले वित्त वर्ष में निदान के अध्य्यन सहित मामूली फेरबदल के लिए 60 क्लस्टरों का उत्तरदायित्व उठाया जाएगा। जारी परियोजनाओं को निरंतर सहयोग देने के अतिरिक्त बुनियादी विकास की 12 नवीन और समान सुविधा केन्द्र की 8 नवीन परियोजनाओं को भी शामिल किया जाएगा।
02.
निर्मल ग्राम-ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य, सफाई एवं स्वच्छता सुनिश्चित करना=संदर्भ सामग्री
देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में रहती है । ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए स्वच्छ, स्वास्थ्य कर एवं साफ सुथरा वातावरण उपलब्ध कराना सरकार के ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के समक्ष के लिए प्रमुख चुनौती रही है । सरकारी ग्रामीण स्वच्छता भारत में 1980 के विश्व जल दशक में केन्द्र बिन्दु बनी जब केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) 1986 में ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया गया था । यह आपूर्ति संचालित, उच्च आर्थिक सहायता एवं आधारभूत संरचना जन्य कार्यक्रम के रूप में प्रारंभ हुआ, लेकिन इसने विशेष प्रगति नहीं की । बाद में कुछ राज्यों में समुदाय-संचालित, जागरूकता बढ़ाने वाले अभियान की सफलता और सीआरएसपी के मूल्यांकन से 1999 में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) के गठन को बढ़ावा मिला । तब से ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत पेय जल आपूर्ति एवं स्वच्छता विभाग द्वारा कार्यक्रम के क्रियान्वयन की मजबूती के लिए अनेक नए प्रयास गए ।
ग्रामीण स्वच्छता कवरेज 2001 में केवल 22 प्रतिशत था, उसे वर्तमान 2010-11 में 70.37 प्रतिशत से अधिक करने के लिए नई नीतियों का उपयोग सफल रहा है । सन् 2005 से संचालित कार्यक्रम में से एक निर्मल ग्राम पुरस्कार या एनजीपी रहा है । यह एक समग्र प्रोत्साहन राशि आधारित कार्यक्रम है, जो पूर्ण स्वच्छता कवरेज प्राप्त करने वाले तथा खुले में शौच जाने की प्रथा को पूर्णरूपेण समाप्त करने वादृी पंचायती राज संस्थाओं को इनाम देकर उनके प्रयासों को मान्यता देता है । पंचायती राज संस्थाओं को स्वच्छता कार्यक्रम अपनाने के लिए बढ़ावा देने के लिए उन पीआरआई को इनाम दिया जाता है, जिन्होंने खुले में शौच जाने से मुक्त वातावरण का लक्ष्य शत-प्रतिशत अर्जित कर लिया है । निर्मल ग्राम पुरस्कार के अंतर्गत प्रोत्साहन राशियों ने स्वच्छता कवरेज में वृद्धि लाने में योगदान दिया है ।
सिक्किम पूर्ण स्वच्छता कवरेज प्राप्त करने वाला देश का पहला निर्मल राज्य हो गया है । निर्मल ग्राम पुरस्कार की अवधारणा का सामाजिक अभियांत्रिकी एवं समुदाय गतिशीलता के एक मात्र औजार के रूप में अंतर्राष्ट्रीय जयघोस हुआ। इसने ग्रमीण स्वच्छता जैसे कठिन कार्यक्रम को गति देने में सहायता प्रदान की है । 1999 में टीएससी शुरू होने के बाद औसत कवरेज 2001 से 2004 के मध्य 3 प्रतिशत वार्षिक रूप से बढ़ा । 2004 में एनजीपी शुरू होने के बाद औसत कवरेज में प्रत्येक वर्ष लगभग 7-8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है ।
एनजीपी प्राप्त करने वाली प्रत्येक ग्राम पंचायत आस-पास के गांवों में लहर लाने वाला प्रभाव पैदा कर रही है । प्रोत्साहन राशि ने पूरे देश में पंचायती राज नेताओं की कल्पना शक्ति को प्रज्वलित कर दिया है तथा उन्हें स्वच्छता का विजेता बना दिया है । यह ग्रामीण स्वच्छता कवरेज में 2005 से आश्चर्यजनक प्रगति के पीछे मुख्य प्रवर्तक रही है ।
03.
आयुर्वेद का क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान -अनुसंधान एवं वैकल्पिक औषधि केंद्र
आयुर्वेद की प्राचीन पद्धतियों का अध्ययन भारतीय शैक्षिक क्षेत्र में सुस्थापित है और देश के हरेक राज्य में अनेक संस्थान एवं अनुसंधान केंद्र औषधीय पौधों की पैदावार बढ़ाने और उनके संरक्षण के काम में जुटे हैं।
हिमालय की गोद में बसा, जैव विविधता की दृष्टि से समृद्ध सिक्किम आयुर्वेद अध्ययन के दायरे में भी आता है। आयुर्वेद और सिद्ध केंद्रीय अनुसंधान परिषद, आयुष विभाग, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय यहां राजधानी गंगतोक से चार किलोमीटर दूर तादोंग में क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान (आयुर्वेद) की स्थापना कर रहा है। यह संस्थान सिर्फ यहां के लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं ही मुहैया नहीं करवा रहा है, बल्कि अनुसंधान कार्य तथा सिक्किम में मिलने वाले बेजोड़ 500 औषधीय पौधों के सर्वेक्षण में भी जुटा हुआ है।
तादोंग क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान (आयुर्वेद) अपने बहिरंग रोगी विभाग (ओपीडी) में सर्दियों में रोजाना औसतन 30 से 40 मरीजों का इलाज करता है और गर्मियों में यहां आने वाले मरीजों की संख्या 60 तक पहुंच जाती है। संस्थान आम जनता में आयुर्वेद के बारे में जागरूकता फैलाकर स्थानीय स्तर तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश कर रहा है इसलिए लोगों को स्वस्थ जीवन शैली अपनाने और ऐहतियाती उपाय अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। आम जनता के बीच आयुर्वेद को लोकप्रिय बनाने के लिए यह संस्थान अपने बूते पर अथवा राज्य सरकार या पत्र सूचना कार्यालय के सहयोग से राज्य के विभिन्न हिस्सों में आयोजित होने वाले भारत निर्माण सार्वजनिक सूचना प्रचार के दौरान जागरूकता शिविरों का आयोजन कर रहा है।
क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान (आयुर्वेद) के अनुसंधान अधिकारी एवं प्रभारी डॉक्टर ए.के. पांडा ने बताया कि चिकित्सा शिविर के दौरान इलाज कराने वाले सिक्किम के दूर-दराज के विभिन्न इलाकों के लोगों को आगे के इलाज के लिए संस्थान आना पड़ता है। सिक्किम के लोगों में आमतौर पर गैस्ट्राइटिस (जठर रोग), पीठ दर्द और गठिया रोग के मामले सामने आते हैं और हमने पिछले साल 9 महीनों में करीब 700 रोगियों का सफल इलाज किया। राज्य का एकमात्र आयुर्वेद संस्थान होने के नाते, इसने औषधियों की कारगरता परखने के लिए पुरानी मान्यताओं, बुजुर्गों और हकीमों (फोक हीलर्स) से आंकड़े जुटाकर चिकित्सकीय परीक्षण भी किए हैं।
आयुर्वेद में जैव-अपमार्जन और कायाकल्प के विभिन्न तरीकों के साथ बचाव और उपचार पद्धतियों पर भी जोर दिया गया है। इसलिए क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान (आयुर्वेद) अपने केंद्र में पंचकर्म क्षार सूत्र उपलब्ध करवा रहा है। रोजाना औसतन दस लोगों को पंचकर्म क्षार सूत्र पद्धति उपलब्ध कराई जा रही है।
इस संस्थान के अधिकार क्षेत्र में आने वाले अन्य कार्यों में औषधियों की कारगरता का अध्ययन करने के लिए चिकित्सकीय परीक्षण करना, स्वास्थ्य शिक्षा और एहतियाती उपायों की जानकारी मुहैया कराना और सिक्किम के लोगों में आयुर्वेद के बारे में जागरूकता फैलाना शामिल है।
सिक्किम के प्रचुर मात्रा में औषधीय पौधों से समृद्ध होने की वजह से संस्थान का खुद की औषधीय पादप सर्वेक्षण यूनिट (एसएमपीयू) है, जो हिमालय की गोद में बसे इस राज्य में पाए जाने वाले 130 से ज्यादा औषधीय पौधों का पहले ही सर्वेक्षण कर चुकी है। संस्थान ने अपने सर्वेक्षणों का उल्लेख ‘मेडिको इथनो बोटानिकल एक्सप्लोरेशंस इन सिक्किम हिमालयाज़ में किया है। विभिन्न अनुसंधान कार्यों के अलावा, संस्थान ने अधिकतर उत्तरी सिक्किम के ऊंचाई वाले इलाकों में मिलने वाले कोर्डीसेप्स सिनेसिस के परम्परागत इस्तेमाल और चिकित्सकीय क्षमता पर भी काम किया है। स्थानीय लोग कोर्डीसेप्स सिनेसिस को यार्सा गुम्बा या कीरा झाड़ कहकर पुकारते हैं।
संस्थान के अनुसंधान के मुताबिक सिक्किम के स्थानीय हकीम कैंसर, दमा, तपेदिक, मधुमेह, खांसी और जुकाम जैसे 21 से ज्यादा रोगों के इलाज में कोर्डीसेप्स सिनेसिस का इस्तेमाल करते हैं। यह इल्ली और फंफूद का दुर्लभ मिश्रण है जो सिक्किम में 4500 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है।
संस्थान ने जादवपुर विश्वविद्यालय और कस्तूरबा मेडीकल कॉलेज, मंगलौर के सहयोग से कालो हल्दी (काली हल्दी), बिखम (वत्सनाभ) और किरातो (किरातातिक्ता) के साथ कैंसर-रोधी अध्ययन भी किया है। संस्थान उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की दूरी मिटाने के लिए जल्द ही सिक्किम विश्वविद्यालय के सहयोग से वेल्यू चेन ऑफ मेडिसिनल प्लांट इन सिक्किम परियोजना शुरू कर रहा है।
क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान जड़ी-बूटी संबंधी उत्पादों विशेषकर आयुर्वेद और अम्जी या इलाज की तिब्बती प्रणाली के दुष्प्रभावों पर भी नजर रख रहा है। इसका अलग से औषधि सह-सतर्कता केंद्र भी है, जहां लोग आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध औषधियों के दुष्प्रभावों की जानकारी दे सकते हैं। (पसूका)
04.
विश्व मौसम दिवस का लोगों की सुरक्षा और कल्याण में योगदान मौसम=कल्पना पालकीवाला
विश्व मौसम संगठन प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को अपने 189 सदस्यों एवं वैश्विक मौसम समुदाय के साथ मिलकर विश्व मौसम दिवस मनाता है । अंतर्सष्ट्रीय मौसम संगठन की स्थापना वर्ष 1873 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना में आयोजित पहली अंतरराष्ट्रीय मौसम कांग्रेस में की गयी थी । इस संगठन का उद्देश्य मौसम स्टेशन नेटवर्क की स्थापना करना था । यह नेटवर्क टेलीग्राफ लाइन से जोड़ा गया और जहाजरानी सेवा सुरक्षा के लिए इन्होनें मौसम संबंधी जानकारियां उपलब्ध करायीं ।
23 मार्च वर्ष 1950 में इसका नाम बदल कर विश्व मौसम संगठन कर दिया गया और अगले वर्ष से इसने संयुक्त राष्ट्र की मौसम विशेषज्ञ व आपरेशनल हाइड्रोलॉजी तथा भूभौतिक विज्ञानों से संबंधित एजेंसी के रूप में कामकाज प्रारंभ कर दिया ।
विश्व मौसम संगठन लोगों की सुरक्षा व कल्याण तथा खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है । इस वर्ष इसका नारा है जलवायु आपके लिए।
जलवायु के दो भौतिक और सूचनात्मक पक्ष हैं । भौतिक पक्ष में प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता जैसे नवीकरणीय ऊर्जा आदि चीजें शामिल हैं । सूचनात्मक पक्ष में विशेषकर सामाजिक आर्थिक निर्णय की प्रक्रिया शामिल है । विस्तृत रूप से जलवायु एक ऐसा संसाधन है जिसका अन्य प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन पर गहरा असर होता है खासकर कृषि उत्पादन, जल प्रबंधन, स्वास्थ्य और कई अन्य महत्वपूर्ण प्रयोगों में इसका व्यापक प्रभाव है ।
हाल के वर्षों में विश्व मौसम दिवस के नारे इस प्रकार रहे हैं- वर्ष 2009 में वेदर, क्लाइमेट. एडं द एयर वी ब्रीथ; वर्ष 2008 में आब्जरविंग आवर प्लानेट फार ए वेटर पऊयूचर; वर्ष 2007 में पोलर मीटरोलाजी: अंडरस्टैंडिंग ग्लोबल इम्पैक्टस; वर्ष 2006 में प्रिवेंटिग एडं मिटीगेटिंग नेचुरल डिजास्टर; वर्ष 2005 में वेदर, क्लाइमेट वाटर एडं सस्टेनिबल डेवलपमेंट; वर्ष 2004 में वेदर, क्लाइमेट वाटर इन द इन्फोरमेशन एज तथा वर्ष 2003 में आवर पऊयूचर क्लाइमेट ।
विश्व मौसम दिवस को मौसम निगरानी केंद्रों की स्थापना के लिए वैश्विक सहयोग को बढावा देने, हाइड्रोलॉजीकल व जियोफिजीकल निगरानी केंद्रों की स्थापना इन केंद्रो के पुनर्निमाण एवं रखरखाव तथा शोध के लिए उपकरण मुहैया कराने, मौसम में तेजी से आ रहे बदलावों और संबंधित सूचनाओ के लिए तंत्र की स्थापना एवं रखरखाव तथा मौसम व संबंधित निगरानी के लिए मानकीकरण व आंकड़ो तथा निगरानी से जुडी सूचनाओं के एकरूप आंकडों के प्रकाशन, मौसम की सूचनाओं के प्रयोग को जहाजरानी, विमानन, जल संबंधी समस्यायों, कृषि व अन्य मानवीय क्रियाकलापों में एवं इस क्षेत्र में शोध एवं प्रशिक्षण को बढावा देने आदि के रूप मे मनाया जाता है ।
इसके अलावा इस दिवस को लोगों की जलवायु के बदलते स्वभाव के बारे में समझ का विस्तार करना, पर्यावरण पर मौसम के प्रभाव और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के निपटारे के लिए उपाय सुझाने के रूप में भी मनाया जाता है ।
विश्व मौसम संगठन के क्रियाकलापों को जलवायु के क्षेत्र में आज महत्वपूर्ण् स्थान प्राप्त है । इस संगठन को मानवीय सुरक्षा को बढावा देने के अलावा सभी देशों के आर्थिक लाभ को बढाने के रूप में भी जाना जाता है । (पसूका)
05.
घरेलू गौरैया…घटती जनसंख्या= कल्पना पालकीवाला
घरों में पायी जाने वाली गौरैया के बारे में अनगिनत कविताएं, गीत, लोरियां, लोकगीतों और चित्रों की हमारी विशद परम्परा है लेकिन आज इस पक्षी का जीवन संकटमय हो गया है। एक लंबा समय बीत गया जब हमने गौरैया की चीं ची की ध्वनि और उसका नृत्य देखा हो ।
गुजरात के एक सेवानिवृत्त वन अधिकारी के इस गौरैया को बचाने की कोशिशों से प्रेरणा पाकर एक आंदोलन की शुरूआत हुयी है । इसमें लोगों ने इस पक्षी और तोतों एवं गिलहरियों के लिए घोंसलों का निर्माण किया । ये घोसलें मिट्टी या पुराने बक्सों की मदद से बनाए गए और इन्हें बाद में पेडों, खेतों, मैदानों यहां तक कि आवासीय बंगलों में टांग दिया गया । इंसानों के बनाए इन घोसलों में पानी और खाने के लिए दाने तक रख दिए गए।
विश्व भर में अपनी पहचान रखने वाली इस गौरैया का विस्तार पूरे संसार में देखने को मिलता है लेकिन पिछले कुछ सालों में इस चिड़िया की मौजूदगी रहस्यमय तरीके से कम हुयी है। पतझड़ का मौसम हो या सर्दियों का यह पक्षी हम सालों साल से अपने बगीचों में अक्सर देखने के आदी रहे हैं । लेकिन अब सप्ताह के हिसाब से समय बीत जाता है और इस भूरा पक्षी देखने को नहीं मिलता । इससे अनायास ही मुझे अपने विद्यालय के उन पुराने दिनों की याद ताजा हो जाती है जब मैनें महान हिन्दी कवियत्री महादेवी वर्मा की गौरैया नामक कविता पढी थी । उस समय यह अजूबे से कम नही था क्योंकि कविता राजा या किसी महान नेता के बारे में नहीं बल्कि एक साधारण से पक्षी को केंद्र में रखकर लिखी गयी थी । कवि सुब्रहमण्यम भारती ने भी कहा है ..आजादी की चिड़िया ।..
यह चिड़िया शहरों. घरेलू बगीचों. घरों में खाली पडी जगहों या खेतों में अपना घर बनाती है और वहीं प्रजनन भी करती है । यह पक्षी अब शहरों में देखने को नहीं मिलता हालांकि कस्बों और गांवों में इसे पाया जा सकता है । गौरैया को भले ही लोग अवसरवादी चिड़िया कहें लेकिन आज यह चिड़िया पूरे विश्व में अन्य पक्षियों के साथ अपने जीवन को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है । गौरैया की जनसंख्या नीदरलैंड में इतनी गिर चुकी है कि इसे अब रेड लिस्ट में डालने पर विवश होना पड़ा है ।
भारत में भी इस चिड़िया की जनसंख्या में हाल के वर्षो में भारी गिरावट दर्ज की गयी है । यूरोप महाद्वीप के कई जगहों पर पायी जाने वाली गौरैया की तादाद में यूनाइटेड किंगडम. फ्रांस. जर्मनी. चेक गणराज्य. बेल्जियम .इटली और फिनलैंड में खासी कमी पायी गयी है ।
घरेलू गौरैया को एक समझदार चिड़िया माना जाता है और यह इसकी आवास संबंधी समझ से भी पता चलता है जैसे घोसलों की जगह. खाने और आश्रय स्थल के बारे में यह चिड़िया बदलाव की क्षमता रखती है । विश्वभर में गाने वाली चिड़िया के नाम से मशहूर गौरैया एक सामाजिक पक्षी भी है तथा लगभग साल भर यह समूह में देखा जा सकता है । गौरैया का समूह 1.5 से दो मील तक की दूरी की उडान भरता है लेकिन भोजन की तलाश में यह आगे भी जा सकता है । गौरैया मुख्य रूप से हरे बीज. खासतौर पर खाद्यान्न को अपना भोजन बनाती है । लेकिन अगर खाद्यान्न उपलब्ध नहीं है तो इसके भोजन में परिवर्तन आ जाता है इसकी वजह यही है कि इसके खाने के सामानों की संख्या बहुत विस्तृत है । यह चिड़िया कीड़ो मकोड़ों को भी खाने में सक्षम है खासतौर पर प्रजनन काल के दौरान यह चिड़िया ऐसा करती है ।
घोंसला निर्माण
घरेलू गौरैया को अपने के आवास के निर्माण के लिए आम घर ज्यादा पसंद होते हैं । वे अपने घोंसलों को बनाने के लिए मनुष्य के किसी निर्माण को प्राथमिकता देती हैं । इसके अलावा ढंके खंभों अथवा घरेलू बगीचों या छत से लटकती किसी जगह पर यह पक्षी घोंसला बनाना पसंद करता है लेकिन घोंसला मनुष्य के आवास के निकट ही होता है । नर गौरैया की यह जिम्मेदारी होती है कि वह मादा के प्रजननकाल के दौरान घोंसले की सुरक्षा करे और अगर कोई अन्य प्रजाति का पक्षी गौरैया समुदाय के घोंसले के आसपास घोंसला बनाता है तो उसे गौरैया का कोपभाजन बनना पडता है । गौरैया का घोंसला सूखी पत्तियों व पंखों और डंडियों की मदद से बना होता है । इसका एक सिरा खुला होता है ।
घरेलू गौरेया पास्सेर डोमेस्टिकस विश्व गौरैया परिवार पास्सेराइडे का पुरानी सदस्य है । कुछ लोग मानते हैं कि यह वीबर फिंच परिवार की सदस्य है । इस पक्षी की कई अन्य प्रजातियां भी पायी जातीं हैं । इन्हें प्राय इसके आकार तथा गर्दन के रंग के आधार पर अलग किया जाता है । विश्व के पूर्वी भाग में पायी जाने वाली इस चिड़िया के गाल धवल तथा पश्चिमी भाग में भूरे होते हैं । इसके अलावा नर गौरैया की छाती का रंग अंतर के काम में लाया जाता है । दक्षिण एशिया की गौरैया पश्चिमी गोलार्ध्द की तुलना में छोटी होती है । यूरोप में मिलने वाली गौरैया को पास्सेर डोमेस्टिकस. खूजिस्तान में मिलने वाली को पास्सेर पर्सीकस . अफगानिस्तान व तुर्कीस्तान में पास्सेर बैक्टीरियन . रूसी तुर्कीस्तान के पूर्वी भाग के सेमीयेरचेंस्क पर्वतों पर मिलने वाली गौरैया को पास्सेर सेमीरेट्सचीन्सिस कहा जाता है । फिलीस्तीन और सीरिया में मिलने वाली गौरैया की छाती का रंग हल्का होता है । भारत .श्रीलंका और हिमालय के दक्षिण में पायी जानी वाली गौरैया को पास्सेर इंडिकस कहते हैं जबकि नेपाल से लेकर कश्मीर श्रीनगर में इस चिड़िया की पास्सेर परकीनी नामक प्रजाति पायी जाती है ।
भारत के हिन्दी पट्टी इलाके में इसका लोकप्रिय नाम गौरैया है तथा केरल एवं तमिलनाडु में इसे कुरूवी के नाम से जाना जाता है । तेलुगू में इसे पिच्चूका . कन्नड में गुब्बाच्ची . गुजराती में चकली .तथा मराठी में चिमनी. पंजाब में चिरी. जम्मू कश्मीर में चायर. पश्चिम बंगाल में चराई पाखी तथा उडीसा में घाराचटिया कहा जाता है । उर्दू भाषा में इसे चिड़िया और सिंधी भाषा में इसे झिरकी के नाम से पुकारा जाता है ।
लक्षण
14 से 16 सेंटीमीटर लंबी इस पक्षी के पंखों की लंबाई 19 से 25 सेंटीमीटर तक होती है जबकि इसका वजन 26 से 32 ग्राम तक का होता है । नर गौरैया का शीर्ष व गाल और अंदरूनी हिस्से भूरे जबकि गला. छाती का ऊपरी हिस्सा श्वेत होता है । जबकि मादा गौरैया के सिर पर काला रंग नहीं पाया जाता बच्चों का रंग गहरा भूरा होता है ।
गौरैया की आवाज की अवधि कम समय की और धात्विक गुण धारण करती है जब उसके बच्चे घोंसले में होते हैं तो वह लंबी सी आवाज निकालती है । गौरैया एक बार में कम से कम तीन अंडे देती है । इसके अंडे का रंग धवल पृष्ठभूमि पर काले .भूरे और धूसर रंग का मिश्रण होता है । अंडो का आकार अलग अलग होता है जिन्हें मादा गौरैया सेती है । इसका गर्भधारण काल 10 से 12 दिन का होता है । इनमें गर्भधारण की क्षमता उम्र के साथ बढती है और ज्यादा उम्र की चिड़िया का गर्भकाल का मौसम जल्द शुरू होता है ।
गिरावट के कारण
इस चिडिया की जनसंख्या में गिरावट की कई वजहें बतायी गयी हैं । इनमें से एक प्रमुख वजह सीसे रहित पेट्रोल का प्रयोग होना है । इसके जलने से मिथाइल नाइट्रेट जैसे पदार्थ निकलते हैं । जो छोटे कीड़े के लिए जानलेवा होते हैं और ये कीड़े
ही गौरैया के भोजन का मुख्य अंग हैं । दूसरी वजह के अनुसार खरपतवार या भवनों के नए तरह के डिजायन जिससे गौरेया को घोंसला बनाने की जगह नहीं मिलती है । पक्षी विज्ञानी और वन्य जीव विशेषज्ञों का अनुमान है कि कंक्रीट के भवनों की वजह से घोंसला बनाने में मुश्किल आती हैं इसके अलावा घरेलू बगीचों की कमी व खेती में कीटनाशकों के बढते प्रयोग के कारण भी इनकी संख्या में कमी आयी है । हाल के दिनों में इनकी जनसंख्या में गिरावट का मुख्य कारण मोबाइल फोन सेवा मुहैया कराने वाली टावरें हैं । इनसे निकलने वाला विकिरण गौरैया के लिए खतरनाक साबित हो रहा है । ये विकिरण कीड़ो मकोड़ों और इस चिड़िया के अंडो के विकास के लिए हानिकारक साबित हो रहा है ।
इंडियन क्रेन्स और वेटलैंडस वकिर्गं ग्रुप से जुडे के एस गोपी के अनुसार हालांकि इस बारे में कोई ठोस सुबूत या अध्ययन नहीं है जो इसकी पुष्टि कर सके पर एक बात निश्चित है कि इनकी जनसंख्या में गिरावट अवश्य आयी है । उनके अनुसार खेतों में प्रयोग होने वाले कीटनाशक आदि वजहों से गौरैया का जीवन परिसंकटमय हो गया है ।
कोयम्बटूर के सालिम अली पक्षी विज्ञान केंद्र एवं प्राकृतिक इतिहास के डा. वी एस विजयन के अनुसार यह पक्षी विश्व के दो तिहाई हिस्सों में अभी भी पाया जाता है लेकिन इसकी तादाद में गिरावट आयी है । बदलती जीवन शैली और भवन निर्माण के तरीकों में आये परिवर्तन से इस पक्षी के आवास पर प्रभाव पड़ा है
आज मैं गौरैया के शोर को याद करती हूं और उसके इस डाल से उस डाल तक फुदकने को भी स्मरण करती हूं । मुझे महादेवी वर्मा की कविता गौरैया का भी ध्यान आता है जिसमें गौरैया हाथ में रखे कुछ दानों को खा रही है और कंधों पर कूदती है तथा लुकाछिपी कर रही है । ये दृश्य मुझे इतने याद हैं कि जैसे यह मेरे सामने हो रहा हो । मैं उम्मीद करती हूं कि महादेवी वर्मा की कविता पन्नों में सिमट के नहीं रह जायेगी और गौरैया हमेशा के लिए हमारे पास वापस आयेगी ।
विनोद कोरी जायसवाल
06.
हवाई डाक के सौ साल-अलकेश त्यागी*
भारतीय डाक ने विश्व के आधिकारिक हवाई डाक उड़ान का शताब्दी समारोह मनाया । 18 फरवरी, 1911 को एक हवाई जहाज ने 6,500 पत्र लेकर इलाहाबाद से नैनी के लिए उड़ान भरी थी । इस स्मरणोत्सव को यादगार के रूप में मनाने के लिए वर्ष 12 फरवरी को इलाहबाद ने हवाई टिकट पर चार टिकटों का एक सेट जारी किया । भारतीय वायुसेना के सौजन्य से इस ऐतिहासिक उड़ान का पुन: अभिनय पेश किया गया । दिल्ली में 12 से 18 फरवरी, 2011 तक इंडिपेक्स -2011 का आयेाजन किया गया । श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने इस आयेाजन का शुभारंभ किया । डाक को इतिहास का भंडार गृह कहा जाता है परन्तु जिस ढंग से इसे वहन एवं वितरित किया गया, बावजूद इसके यह इतिहास का एक रोचक हिस्सा बनाता है । हवाई डाक क्षेत्र में भारत विश्व में अग्रणी होने पर गौरव महसूस कर सकता है । यह गौरव अकस्मात एक रोचक घटना में प्राप्त हुआ । विश्व के प्रथम आधिकारिक हवाई डाक का विचार 1910 में इलाहाबाद प्रदर्शनी में हवाई जहाज के प्रदर्शन पर आमंत्रित अतिथियों से निधि एकत्रित करने के् निवेदन के दौरान आया।
कहा जाता है कि भारतीय छात्रों के छात्रावास के एक वार्डन रिवरेंड डब्ल्युइएस होलैंड और इलाहाबाद के होली ट्रीनिटी चर्च के पुरोहित एक नया छात्रावास बनाने के लिए हलाहाबाद प्रदर्शनी में आए । इंग्लैंड के द एरोप्लेन क्लब के संस्थापक से नए छात्रावास के लिए फंड एकत्रित करने का आग्रह किया । श्री वाल्टर वाइंडहम ने सोचा कि एक हवाई डाक का आरंभ कर ऐसा किया जा सकता है । इससे दो उद्देश्य एक तो इलाहाबाद प्रदर्शनी का विज्ञापन और दूसरा डाकों को सुरक्षित एवं द्रुत परिवहन की संभावना पूरी होगी।
कैप्टन वाइंडहम के आग्रह पर संयुक्त प्रांतों के पोस्टमास्टर , सर ज्योफ्री क्लार्क और भारत में डाकघर के महानिदेशक दोनों ने मंजूरी दिया कि वे डाक को जहाज के द्वारा भेजने से पहले आधिकारिक रूप से ग्रहण करने और विशेष रूप से रद्द कर देने को मंजूरी प्रदान की। लोगों को इस साहसिक कार्य के बारे में सूचित किया गया और कहा गया कि जो लोग अपनी चीजों को जहाजों के द्वारा भेजना चाहते हें वे अपना पता और उचित डाक शुल्क के टिकट होली ट्रीनिटी चर्च के पुरोहित के पास भेजें। चर्च के नये छात्रावास भवन निर्माण के लिए दान के रूप में अतिरिक्त छा आना (या छह पेंस) देने का आग्रह किया गया । इलाहाबाद डाक पर जो विशेष डाक चिन्ह प्रयुक्त हुआ वह अत्यंत विशिष्ट था। इसका पांसा भी वाइंडहम ने लिखा , भारत सरकार के आग्रह पर तराशा गया था और इसके डिजाइन एशिया के पर्वतों के ऊपर उड़ान भरते दो जहाजों का छायाचित्र , बनाने का सम्मान मुझे प्रतिष्ठा प्राप्त हुआ । 4 सेमी व्यास का डाक चिह्न का पांसा अलीगढ़ के डाकीय कार्यशाला में ढाला गया था । पोस्टमास्टर जनरल ने घेाषणा की कि प्रथम एरियल डाक के रवाना होने के बाद उसी दिन इसे नष्ट कर दिया जाएगा । यह टिकटों के अनुपम मूल्यों और विशेषताओं को सुनिश्चित करेगा और वे जो इस अवसर का लाभ उठाएंगे, वे ऐसे चिह्नित टिकटों का एकाधिकार सुरक्षित रखेंगे । (समाचार पत्र दी पायनियर 12 फरवरी, 1911) ।
इस हवाई डाक ने पूर्व नियेाजित समय से दो दिन पहले 18 फरवरी, 1911 को उड़ान भरी । हजारों भारतीय नागरिक ने फ्रेंच पायलट हेनरी पिकेट के उड़ान भरने के गवाह बने। उस समय इलाहाबाद में कम से कम दस लाख भारतीय धार्मिक उत्सव पूर्ण कुंभ , जो 12 वर्ष में केवल एक बार आता है , मनाने के लिए इकट्ठा थे । हेनरी पिकेट ने सायं 5 बजे उड्डयन मैदान से द हंबर की उड़ान भरी, दो बार चक्कर लगाया और उसके बाद यमुना नदी को पार करता करता हुआ 6500 पत्रों और कार्डों के साथ प्रथम आधिकारिक हवाई डाक के साथ नैनी जंकशन पहुंचकर इतिहास रचा । इन पत्रों में एक पत्र पं. मोती लाल नेहरू का अपने पुत्र जवाहर लाल नेहरू के नाम का था । इलाहाबाद से प्रस्थान करने के क्षण से विपरीत, उतरते समय स्वागत के लिए केवल एक डाक कर्मचारी मौजूद था । उसने मेल बैग हस्तांतरित किया और इलाहाबाद वापस आ गया । यह सारा भ्रमण 30 मिनट में समाप्त हुआ । इसके बाद ये सारा मेल पूरी दुनिया में गंतव्य स्थान तक साधारण /समुद्री डाक द्वारा पहुंचाया गया । घर प्रस्थान से पूर्व एक दूसरे आविर्भाव के लिए विइंडहम की टीम इलाहाबाद के बाद बंबई के लिए रवाना हुई।
सितंबर 1911 के सुप्रसिद्ध हिंडन से विइंडसट (यूके) और वापसी हवाई डाक उड़ान के राज्याभिषेक के आयेाजन के लिए वाइंडहम ने अपने अनुभव का प्रयोग भारत में किया । वाइंडहम को 1923 में नाइट की उपाधि दी गई और 1933 में लंदन शहर का फ्रीमैन बनाया गया ।
07.
औद्योगिक उत्पाद एवं विकास: चुनौतियां, हस्तक्षेप एवं संभावनाएं
अर्थव्यवस्था=समीर पुष्प
भारतीय अर्थव्यवस्था मूल्य के संदर्भ में 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । क्रय-शक्तिके मामले में यह चौथी सबसे बड़ी और तेजी से विकास करने वाली दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है । गौर करने वाली बात यह है किभारतीय अर्थव्यवस्था पिछले तीन वर्षों के दौरान गंभीर रूप से प्रभावित हुई, फिर भी लगातार दो झटकों को सहन करने में सफल रही । पहला, वैश्विक वित्तीय संकट जिसने दुनियाभर में विकास, व्यापार और 2007-09 के दौरान वित्तीय व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया और दूसरा, घरेलू स्तर पर 2008-09 के दौरान जब मानसून ने धोखा दिया और परिणामस्वरूप 2009-10 के दौरान देश को सूखे का सामना करना पड़ा । ऐसी विषम परिस्थितियों में भी भारतीय अर्थव्यवस्था लचीलापन दिखाते हुए मजबूती के साथ आगे बढ़ी ।
औद्योगिक विकास को झटका
भारत में औद्योगिक विकास को औद्योगिक उत्पाद सूचकांक–आईआईपी के जरिये मापा जाता है, जो पिछले तीन वर्षों से लगातार अस्थिरता का शिकार है । आईआईपी पर आधारित संचयी औद्योगिक उत्पाद विकास अप्रैल-दिसम्बर, 2010 के दौरान 8.6 फीसदी दर्ज किया गया । वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान वैश्विक आर्थिक मंदी की वजह से महज 3.2 फीसदी ही विकास दर्ज हो सका । उपयुक्त मौद्रिक और वित्तीय नीतियों के माध्यम से सरकार द्वारा सही समय पर हस्तक्षेप की वजह से मौजूदा वित्त वर्ष की पहली दो तिमाही अप्रैल-जून और जुलाई-सितम्बर के दौरान सकल औद्योगिक विकास दर 10.5 फीसदी दर्ज की गई । इसके बाद उच्च आधार प्रभाव के कारण औद्योगिक उत्पादों के विकास दर में आंशिक रूप से कमी आई ।
भारत का औद्योगिक क्षेत्र खनन, विनिर्माण और विद्युत जैसे तीन प्रमुख क्षेत्रों में बंटा है । औद्योगिक उत्पाद सूचकांक — आईआईपी में विनिर्माण क्षेत्र का 79.4 प्रतिशत, खनन का 10.5 प्रतिशत और विद्युत क्षेत्र का 1.2 प्रतिशत योगदान है । आईआईपी के आंकड़े वस्तुओं अथवा सेवाओं के इस्तेमाल के आधार पर तैयार किए जाते हैं जो मौलिक वस्तुओं, पूंजीगत वस्तुओं, मध्यवर्ती, उपभोक्ता साम्रगियों और उपभोक्ता गैर टिकाऊ वस्तुओं जैसे 5 प्रमुख समूहों में बंटे हुए हैं । भारत के सकल घरेलू उत्पाद में औद्योगिक क्ष्ेात्र का 20 फीसदी योगदान है । औद्योगिक विकास में नरमी सीधे तौर पर जीडीपी को प्रभावित करती है । वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र समेत औद्योगिक विकास पर काफी दबाव रहा । वैश्विक आर्थिक मंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर घरेलू एवं खींचतान से परेशान औद्योगिक क्षेत्र को विशेष तौर पर प्रभावित किया । मंदी का प्रभाव तो चौतरफा पडा, लेकिन देश के औद्योगिक क्षेत्र के तीनों प्रमुख क्षेत्रों खनन, विनिर्माण और विद्युत क्ष्ेात्र बुरी तरह प्रभावित हुए । सरकार ने बदलाव के बयार में ही तेजी से प्रतिक्रिया करते हुए सही समय पर रहते हस्तक्षेप किया, जिससे तेजी से सुधार करना संभव हो पाया ।
सरकार की नीतिगत सक्रियता
मंदी से निपटने के लिए सरकार ने नीतिगत सक्रियता दिखाई और तीन प्रोत्साहन पैकेज जारी किए, जिनका कुल योग एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये था, जो देश की जीडीपी का 3.5 प्रतिशत था । इससे भारतीय बाजार में मांग में खासी बढ़ोतरी हुई । वैश्विक संकट से निपटने के लिए वित्तीय और मौद्रिक नीतियों से हस्तक्षेप किया गया । मंदी के दौरान मौद्रिक और वित्तीय नीतियां इस उद्देश्य से लागू की गईं, ताकिवैश्विक संकट के प्रभाव को न्यूनतम स्तर पर रखने और बुरी तरह से प्रभावित क्षेत्रों में उम्मीद जगाने के लिए कुल मांग के पर्याप्त उच्च स्तर को बनाए रखने में सफलता मिल सके । वित्तीय मोर्चे पर प्रतिक्रिया के दो घटक थे । पहला, उत्पाद शुल्क को दो चरणों में घटाकर 6 फीसदी पर लाना तथा सेवा कर की दर को 2 प्रतिशत पर लाना और दूसरा, लोगों में आत्मविश्वास जगाने के लिए सरकारी खर्च में बढ़ोतरी करना ।
मौद्रिक नीतिके मोर्चे पर, रिजर्व बैंक ने मुद्रा की तरलता बढ़ाने के लिए कई ठोस कदम उठाए । ऐसा भारतीय कंपनियों की समस्याएं दूर करने के लिए किया गया । अक्तूबर 2008 से अप्रैल 2009 तक की अवधिके दौरान रेपो रेट को 4.25 प्रतिशत की कटौती करते हुए 4.75 प्रतिशत पर लाया गया और रिवर्स रेपो रेट में भी 2.75 प्रतिशत की कटौती करते हुए उसे 3.25 प्रतिशत पर लाया गया । यही नहीं, आरबीआई ने नकद आरक्षी अनुपात में भी 4 प्रतिशत की कटौती करते हुए उसे 5 प्रतिशत कर दिया ।
हस्तक्षेप के बाद बदलाव की बयार
इन सुधारवादी कदमों के चलते औद्योगिक क्षेत्र में जून 2009 से बदलाव आना शुरू हो गया, जो आगे भी जारी रहा । दिसम्बर 2009 में सकल औद्योगिक विकास 18 प्रतिशत के चरम पर पहुंचा, जो 1993-94 के बाद अर्जित की गई सर्वोच्च विकास दर थी । अपने छह प्रमुख अंगों विद्युत, कोयला, कच्चा तेल, पेट्रोलियम शोधक उत्पाद, इस्पात और सीमेंट के साथ आईआईपी में 26.68 प्रतिशत का योगदान देने वालेनिर्माण क्षेत्र ने तेजी से विकास दर्ज करते हुए दिसम्बर 2009 में अब तक की सबसे अधिक 9.1 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की।
इन दिनों भी महीने दर महीने विकास दर में उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहे हैं लेकिन कुल विकास सकारात्मक ही है । इससे साफ तौर पर जाहिर होता है किविषम परिस्थितियों में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के बेहतर नतीजे मिले हैं ।
इस्तेमाल आधारित वर्गीकरण के अनुसार, वित्त वर्ष 2008-09 के 8.2 प्रतिशत की तुलना में वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान पूंजीगत वस्तुओं ने 20.9 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की । इसी वित्त वर्ष के दौरान उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में भी 6.2 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की गई । आधारभूत और मध्यवर्ती वस्तु उद्योग में 7.2 प्रतिशत विकास दर दर्ज की गयी । आधारभूत वस्तुओं, मध्यवर्ती वस्तुओं और पूजीगत वस्तुओं ने क्रमश: 6.1 प्रतिशत, 16.7 प्रतिशत और 9.2 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की । हमारे औद्योगिक विकास के 6 प्रमुख उद्योगों ने 2008-09 के दौरान महज 3 प्रतिशत की तुलना में 5.5 प्रतिशत का तेज विकास दर्ज किया।
भारत का नीतिगत लाभ
वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान हमारे मौद्रिक और वित्तीय प्रबंधन को पूरी दुनिया में सराहा गया । हमारी आर्थिक मदद के तरीके में कुछ ऐसी बातें रहीं जो कई मायनों में खास थीं। देश में मुद्रा तरलता बढ़ाने में बैंकों की भागीदारी रही, इसमें सरकारी प्रतिभूतिनहीं डाली गई और किसी भी देश को न तो कोई प्रतिभूतिऔर न ही कोई वाणिज्यिक पत्र गिरवी रखा गया ।
राजकोषीय प्रोत्साहन के रूप में सरकारी खर्च बढ़ाया गया ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उत्साह बढ़े और इससे वित्तीय संस्थानों को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचा । इससे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी येाजना के माध्यम से दीर्घकालीन उत्पादक संपत्तिका सृजन हुआ, जिसकी बदौलत न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली के माध्यम से किसानेां को बेहतर कीमतें प्राप्त हुईं ।
हम कह सकते हैं कि हमारे देश के कुछ प्रमुख उद्योगों में क्षमता विकास की काफी संभावनाएं रही हैं । निस्संदेह, सुदृढ़ विकास और नियमित वित्तीय सुदृढ़ीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था की अब पहचान बन गई है । लेकिन, भौतिक ढांचागत क्षेत्र में अतिरिक्त क्षमता विकास की धीमी चाल औद्योगिक क्षेत्र के विकास में बाधक साबित हो रही है । प्रमुख क्षेत्रों में अपनी क्षमता बढ़ाने की कोशिश और मार्ग में आ रही बाधाओं को दूर करने से औद्योगिक क्षेत्र के विकास में मध्यम अवधिसे लंबी अवधितक फायदा मिलता दिखेगा । (पसूका)
08.
विश्व वानिकी दिवस- वनों का टिकाऊ प्रबंध विशेष लेख- वन संरक्षण=कल्पना पालखीवाला
दुनियाभर में वनों को महत्व देने के लिए हर साल 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है। वसंत के इस दिन दक्षिणी गोलार्ध में रात और दिन बराबर होते हैं। यह दिन वनों और वानिकी के महत्व और समाज में उनके योगदान के तौर पर मनाया जाता है। रियो में भू-सम्मेलन में वन प्रबंध को मान्यता दी गई थी तथा जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के तापमान में वृद्धि से निपटने के लिए वन क्षेत्र को वर्ष 2007 में 25 प्रतिशत तथा 2012 तक 33 प्रतिशत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2011 को अंतर्राष्ट्रीय विश्व वन वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की है। इसलिए दुनियाभर की सरकारों, स्वयं सेवी संगठनों, निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र को संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर काम करने को कहा गया है। कुल मिलाकर अंतर्राष्ट्रीय विश्व वन वर्ष का उद्देश्य वन संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाना तथा वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लाभ के लिए सभी तरह के वनों के टिकाऊ प्रबंध, संरक्षण और टिकाऊ विकास को सुदृढ़ बनाना है। वर्ष के दौरान जल ग्रहण क्षेत्र संरक्षण, पौधों को पर्यावास उपलब्ध कराने, पुनर्सृजन के लिए क्षेत्रों, शिक्षा और वैज्ञानिक अध्ययन तथा लकड़ी एवं शहद सहित अनेक उत्पादों के स्रोत जैसे समुदाय को होने वाले लाभ पर बल दिया जाएगा। विश्व वानिकी दिवस का लक्ष्य लोगों को यह अवसर उपलब्ध कराना भी है कि वनों का प्रबंध कैसे किया जाए तथा अनेक उद्देश्यों के लिए टिकाऊ रूप से उनका कैसे सदुपयोग किया जाए।
जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री की परिषद ने हरित भारत के लिए भारत के राष्ट्रीय मिशन को फरवरी 2011 में स्वीकृति दे दी । यह मिशन जलवायु परिवर्तन पर भारत की राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत आठ मिशनों में से एक है। इस मिशन का उद्देश्य वन क्षेत्र की गुणवत्ता तथा मात्रा को बढ़ाकर 10 मिलियन हेक्टेयर करना तथा कार्बन डाई ऑक्साइड के वार्षिक उत्सर्जन को 2020 तक 50 से 60 मिलियन टन तक लाना है।
इसके तहत अपने वन क्षेत्र की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए वन क्षेत्र की मात्रा बढ़ाने पर ध्यान देने के पारंपरिक नजरिए में बुनियादी बदलाव लाने का प्रस्ताव है। वन क्षेत्र या वनों का दायरा बढ़ाने एवं अपने मध्यम दर्जे का वन घनत्व बढ़ाने तथा विकृत वन क्षेत्र को दुरूस्त करने पर मुख्य रूप से ध्यान दिया जा रहा है।
इस मिशन के तहत यह प्रस्ताव है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य हासिल करने के लिए केवल वृक्षारोपण के बजाय वानिकी को समग्र दृष्टिकोण के रूप में लिया जाए। जैव विविधता को संरक्षित रखने और बढ़ाने तथा चारागाह/झाड़ियों, मैनग्रोव वनों तथा दलदली भूमि सहित अन्य पारिस्थितिकी एवं पर्यावासों को पहले जैसी स्थिति में लाने पर भी स्पष्ट रूप से ध्यान देने का प्रस्ताव है।
मिशन के कार्यान्वयन में स्थानीय प्रशासन संस्थाओं को शामिल करने के लिए विकेंद्रीकृत एवं सूझ-बूझ भरा प्रयास करने पर मुख्य रूप से ध्यान दिया जाएगा। हम यह नहीं भूल सकते कि वन हमारे देश में 20 करोड़ से भी अधिक लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत हैं। इसलिए हमारे वनों के संरक्षण तथा उनकी गुणवत्ता में सुधार का कोई भी प्रयास स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी के बिना कामयाब नहीं हो सकता।
इस मिशन के डिज़ाइन में आम नागरिकों एवं नागरिक संस्थाओं को भी जोड़ने की योजना है। इस मिशन के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं:-
भारत में वनरोपण/पर्यावरण अनुकूल ढंग से वनों को पहले की स्थिति में लाने के लिए क्षेत्र को बढ़ाकर अगले दस वर्षों में दुगुना करना और कुल वनरोपण/ पर्यावरण अनुकूल ढंग से वनों को पहले की स्थिति में लाने के लिए क्षेत्र को 2 करोड़ हेक्टेयर करना (अर्थात एक करोड़ हेक्टेयर वन/ गैर-वन क्षेत्र को अतिरिक्त माना जाएगा, जबकि एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को विभिन्न कार्यक्रमों के तहत वन विभाग और अन्य एजेंसियों का कार्य होगा)।
भारत के वार्षिक कुल ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन को वर्ष 2020 तक 6.35 प्रतिशत करने के लिए भारत के वनों द्वारा ग्रीन हाउस गैस को दूर करने की प्रक्रिया में वृद्धि करना। इसके लिए एक करोड़ हेक्टेयर वनों/पारिस्थितिकी के भूमि के ऊपर और नीचे जैव ईंधन को बढ़ाने की ज़रूरत होगी, जिसके फलस्वरूप हर साल एफ 43 मिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन के कार्बन पर रोक लगाने की प्रक्रिया में वृद्धि होगी।
मिशन के तहत शामिल वनों/पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन को बढ़ाना – जलवायु में हो रहे बदलाव को आत्मसात करने के लिए स्थानीय समुदायों की मदद करने के लिए समावेश, भूजल संभरण, जैव विविधता, सेवाओं (ईंधन लकड़ी, चारा, एनटीएफपी इत्यादि) का प्रावधान बढ़ाना। (पसूका)
09.
जनगणना 2011-प्रत्येक निवासी की गणना=रविन्द्र सिंह*
जनगणना जनसांख्यिकी, आर्थिक गतिविधि, साक्षरता, शिक्षा, आवास, घरेलु सुविधाओं, शहरीकरण, प्रजनन, मृत्यु दर, भाषा, धर्म, प्रवास, विकलांगता और अन्य समाजिक-आर्थिक एवं जनसांख्यिकीय ऑंकड़ों की सूचना का सबसे विश्वसनीय स्रोत है। जनगणना 2011 देश की 15वीं और स्वतंत्रता के बाद से 7वीं राष्ट्रीय जनगणना है। देशभर में प्रथम व्यवस्थित जनगणना एक गैर-समकालिक तरीके से 1872 में और पहली समकालिक जनगणना 1881 में की गई थी। जनगणना एक सांविधिक कार्य गतिविधि है जिसे जनगणना अधिनियम, 1948 और जनगणना नियमावली, 1990 के प्रावधानों के अंतर्गत चलाया जाता है। जनगणना केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियों की योजना और कार्यान्वयन के लिए प्राथमिक ऑंकड़ें जुटाती है। इसके साथ संसदीय, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों के लिए सीटों के आरक्षण के उद्देश्य के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त देश में जनगणना कार्य को संचालित करने के लिए नोडल अधिकारी हैं।
जनगणना क्या है ?
जनसंख्या जनगणना देश के सभी लोगों अथवा देश के किसी निर्धारित हिस्से में एक निश्चित समय में आर्थिक और समाजिक ऑंकड़ों के संग्रह, संकलन, विश्लेषण और जनसांख्यिकीय फैलाव को जानने की प्रक्रिया है। इस प्रकार से, जनगणना एक निश्चित दिए गये समय में देश की जनसंख्या और आवास की जानकारी प्रदान करती है।
जनगणना प्रक्रिया
जनगणना प्रक्रिया में प्रत्येक परिवार का दौरा करते हुए प्रश्नों को पूछकर जनगणना प्रपत्र में ब्यौरे भरना शामिल है। व्यक्तियों से एकत्र जानकारी को पूरी तरह से गोपनीय रखा जाता है। वास्तव में, यह जानकारी अदालती कानून के लिए भी सुलभ नहीं है। इसका यहीं प्रावधान लोगों को बिना डर के सही जानकारी देने के लिए प्रोत्साहित करता है।
जनसंख्या गणना के लिए, जनसांख्यिकीय, वैवाहिक स्थिति, सांस्कृतिक, साक्षरता, आर्थिक, प्रवास, कार्य स्थल की यात्रा और प्रजनन मानकों पर 29 प्रश्नों के उत्तर पर कार्य किया जाता है। क्षेत्र का कार्य पूर्ण हो जाने के बाद, प्रपत्रों को देशभर के 15 शहरों में स्थित ऑंकड़े संसाधन केन्द्रों को भेज दिया जाता है। गणना के बाद तीन सप्ताह के भीतर जनसंख्या के अनंतिम ऑंकड़ों को अंतिम रूप दिया जाता है।
जनगणना 2011
जनगणना 2011 को दो चरणों में संचालित किया जा रहा है। प्रथम चरण को आवास सूचीकरण और आवासीय जनगणना का नाम दिया गया और इसे विभिन्न राज्योंसंघशासित प्रदेशों की सुविधा के आधार पर प्रत्येक राज्यसंघशासित प्रदेश में पिछले वर्ष अप्रैल और जुलाई के बीच 45 दिनों की अवधि में संचालित किया गया। द्वितीय चरण को जनसंख्या गणना चरण का नाम दिया गया और यह सारे देश में एक साथ 9 फरवरी, 2011 से प्रारंभ हुआ और 28 फरवरी, 2011 तक जारी रहेगा। गणना का पुनरीक्षण दौर 1 से 5 मार्च, 2011 के बीच किया जाएगा। बर्फबारी वाले क्षेत्रों में पुनरीक्षण दौर 11 सितम्बर से 6 अक्टूबर, 2010 के बीच चलाया गया।
कार्य संचालनों की व्यापकता
भारत में जनगणना एक विशाल परियोजना है। 35 राज्यों और संघशासित प्रदेशों में फैली इस जनगणना में 640 जिले, 5767 तहसीलें, 7742 कस्बे और 6 लाख से ज्यादा ग्राम शामिल हैं। इस अभियान के दौरान, 240 मिलियन से अधिक परिवारों का दौरा किया जाएगा और 1.20 बिलियन लोगों की गिनती की जाएगी। इस व्यापक अभियान को चलाने के लिए, 3 मिलियन लोग इसमें शामिल हैं। इसमें 2.7 मिलियन प्रगणक और पर्यवेक्षक, 54 हजार प्रमुख प्रशिक्षक, 725 प्रमुख प्रशिक्षक सुविधाप्रदाता और 90 राष्ट्रीय प्रशिक्षक शामिल हैं। 18 भाषाओं में 64 करोड़ जनगणना प्रपत्र और 54 लाख निर्देश नियम-पुस्तिकाओं को छापा गया है। बार कोड, प्रपत्र संख्याओं और स्थान विवरण (आंशिक रूप से पूर्व-मुद्रित) जैसी नई विशेषताओं को जनगणना 2011 में जोड़ा गया है। जनगणना में करीब 2209 करोड़ रूपए का व्यय होगा। इस पर प्रति व्यक्ति लागत 18.33 रूपए से भी कम है।
मानचित्रण गतिविधियाँ
वर्तमान प्रशानिक सीमाओं के अनुसार सही नक्शों की उपलब्धता जनगणना के लिए पूर्व-अपेक्षित है। जनगणना आयोग के मानचित्रकला प्रभाग ने इन्हें तैयार करने के लिए इन पर वर्षो तक कार्य किया है और अब देश में विषयपरक नक्शों का सबसे बड़ा निर्माता है। इसने 1981 तक परंपरागत हस्तनिर्मित मानचित्र कला पध्दति का लंबे समय तक उपयोग किया और अब डिजिटल नक्शे तैयार करने के लिए नवीनतम जीआईएस साफ्वेयर का उपयोग करता है। जनगणना 2011 में शामिल नवीनतम तकनीक के अंतर्गत, देश के 33 राजधानी शहरों की गलियों और भवन स्तर तक के डिजिटल नक्शे उपग्रह से प्राप्त चित्र के आधार पर तैयार करना है।
जनणना 2011 में नई विशेषताएं
जनगणना 2011 में कुछ नई सुविधाओं को जोड़ा गया है। इनमें अनुसूचियों का बेहतर प्रारूप, संस्थागत आवासों पर नए संशोधित प्रश्न, लिंग मानदंडों में नई श्रेणी, पृथक और तलाकशुदा के लिए अलग कोड, विद्यालय उपस्थिति की स्थिति के अंतर्गत नए कोड और गैर-आर्थिक गतिविधि के लिए पृथक कोड शामिल हैं। कार्य संबंधित प्रश्नों में, सीमांत श्रमिकों के बीच तीन महीने से कम कार्य करने वालों के लिए एक नई श्रेणी को रखा गया है। गैर-आर्थिक गतिविधि और वेश्यावृति के अंतर्गत एक पृथक कोड-5 की शुरूआत की गई है इन्हें पिछली जनगणना में भिखारी के स्थान पर इस बार अन्य की श्रेणी के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा रहा है। जन्म स्थान के साथ-साथ पिछले निवास के स्थान के ग्राम/कस्बे के वर्तमान नाम को निर्दिष्ट करने के लिए भी प्रावधान रखा गया है। जनगणना अभियानों के बारे में विद्यालय के छात्रों को जागरूक बनाने के लिए नई पहलें की शुरूआत भी की गई है।
प्रौद्योगिकी का उपयोग
जहां तक जनगणना का सवाल है भारत हमेशा से प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। भारत द्वारा 2001 की जनगणना में प्रारंभ किया गया कुशल संशोधक पहचान सॉफ्टवेयर (इंटैलीजैन्ट करैक्टर रीकगनिशन सॉफ्टवेयर, आईसीआर) दुनियाभर में जनगणना के मामले में एक मिसाल बन चुका है। इसमें कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के माध्यम से जनगणना प्रपत्रों की तीव्र गति से जाँच और स्वचालित रूप से ऑंकड़े निकालना शामिल है। इस क्रांतिकारी प्रौद्योगिकी ने व्यापक आंकडों के प्रसंस्करण को बहुत कम समय में पूरा करने के साथ-साथ बड़े स्तर पर किए जाने वाले शारीरिक श्रम और लागत में भी बचत प्रदान की है। उन्नत सुविधाओं के साथ आईसीआर प्रौद्योगिकी से कार्य को शीघ्रता से पूर्ण करने के अलावा 2001 में इस प्रक्रिया को पूरा करने में लगे 4 से 5 वर्षो की समय सीमा को कम करके 1 से 2 वर्ष तक लाने को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा।
भारतीय जनगणना में भूल-चूक होने की दर करीब 1.7 प्रतिशत है जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के भीतर ही है और जारी जनगणना में इस दर को भविष्य में और भी कम करने के प्रयास जारी हैं।
लोगों की भागीदारी
जनगणना प्रक्रिया में बड़े स्तर पर लोगों की भागीदारी और सुचारू अभियान को सुनिश्चित करने के लिए, डिजिटल मीडिया पर जन मीडिया और सार्वजनिक पहुँच कार्यक्रमों एवं अभियानों की शुरूआत की गई। इन अभियानों में ग्रामीण क्षेत्र और आम आदमी पर खास ध्यान दिया गया ताकि उन्हें इसमें शामिल जटिल मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके।
जनगणना को एक नाम देने की दृष्टि से, जनगणना 2011 के लिए एक प्रगणक के प्रतीक स्वरूप एक शुभंकर भी बनाया गया है। इससे जनगणना प्रक्रिया में लोगों के संबंध को जोड़ने में सहायता के अलावा इस प्रक्रिया में प्रगणकों की अहम भूमिका को पहचान दिलाने की भी उम्मीद है। जनता की शिकायतों के समाधान के लिए एक टोल फ्री नंबर और कॉल सेन्टरों की सेवाएँ भी प्रारंभ की गई हैं।
एनपीआर
जनगणना 2011 रूपी मील का पत्थर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का सृजन है। एनपीआर के निर्माण के लिए आवश्यक विवरणों का प्रथम चरण के दौरान अध्ययन किया गया था। देश के निवासियों के लिए एनपीआर की रचना एक महत्वाकांक्षी परियोजना है। इसमें देश के प्रत्येक निवासी के बारे में विशेष जानकारी को एकत्र करना शामिल है। इसमें अनुमानत: 1.2 बिलियन जनसंख्या को शामिल किया जाएगा और इस योजना की कुल लागत 3539.24 करोड़ रूपए है। यह पहला मौका है जब एनपीआर को तैयार किया जा रहा है। आंकड़ों के संग्रह को भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा तैयार किया जाएगा। जनगणना ओर एनपीआर दोनों अलग हैं, हालांकि दोनों प्रक्रियाओं के पीछे मूल सोच जानकारियों का संग्रह ही है।
एनपीआर में देश के लिए एक व्यापक पहचान ऑंकड़ों का संग्रह तैयार करना शामिल है। यह देश के लिए योजना बनाने, सरकारी योजनाओं कार्यक्रमों को बेहतर लक्ष्य प्रदान करने और सुरक्षा को मजबूत करने में सुविधा प्रदान करेगा। जनगणना से एनपीआर को अलग करने वाला एक और पहलू यह भी है कि एनपीआर एक सतत प्रक्रिया है। जनगणना में, संबंधित अधिकारियों की सेवाएँ कार्य पूर्ण हो जाने के बाद समाप्त हो जाती है जबकि एनपीआर के मामले में, संबंधित अधिकारियों और उनके अधीनस्थ अधिकारियों जैसे तहसीलदार और ग्राम अधिकारियों की भूमिका निरंतर जारी और स्थाई रहती है।
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प्राचीन चीन की निधि भारत- चीन संबंध=आलोक देशवाल*
दुनिया की दो अद्भुत प्राचीन सभ्यताओं, भारत और चीन के बीच सांस्कृतिक संबंध दो शताब्दी से ज्यादा पुराने हैं। दोनों देश प्राचीन रेशम मार्ग के माध्यम से जुड़े थे। लेकिन भारत से चीन गये बौद्ध धर्म का परिचय आपसी संबंधों के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम था जिसने चीन में बौद्ध कला और वास्तुकला के निर्माण और चीनी बौद्ध भिक्षुओं जैसे फा-जियान, जुनजांग और इजिंग की भारत यात्रा को एक नये संबंध से जोड़ दिया।
दोनों देशो के बीच ऐतिहासिक मित्रता के आदान-प्रदान को और बढ़ाने के लिए वर्ष 2006 को भारत-चीन मित्रता वर्ष के रूप में घोषित किया गया था। इस वर्ष के एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तौर पर, वर्ष 2006-07 के दौरान चीन के चार प्रमुख शहरों- बीजिंग, झेंग्झौ चूंगकींग, और गुआंगज़ौ में “प्राचीन चीन की निधि” पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी में चीन के लोगों के लिए उनके ही घर में भारतीय कला से जुड़ी सौ कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया। इसके बाद, वर्ष 2011 में भारत के चार शहरों- नई दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और कोलकाता में भी “प्राचीन चीन की निधि” पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी का आयोजन संयुक्त रूप से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और चीन के सांस्कृतिक विरासत प्रशासन द्वारा किया गया। इस प्रदर्शनी के दौरान निओलिथिक से क्विंग राजवंश की विभिन्न कलाओं से जुड़ी सौ प्राचीन काल की वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया। चीनी वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियों जैसे आभूषणों, सजावटी वस्तुओं,मिट्टी और धातु आदि से बने बर्तनों का प्रदर्शन नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में फिलहाल जारी प्रदर्शनी में किया गया। यह प्रदर्शनी 20 मार्च, 2011 तक चली।
इस प्रदर्शनी का उद्देश्य दोनों देशों के लोगों के बीच मित्रता के संबंध को और मजबूत बनाना है।
चीन हमेशा से अपनी संस्कृति, कला, वास्तुकला, विश्वास, दर्शन आदि के लिए दुनिया में आकर्षण का एक केन्द्र है। पेकिंग मानव के अवशेषों के साक्ष्य के साथ यह आदिम मानव के विकास का भी गवाह रहा है। नवपाषाण युग में, इसे व्यवस्थित जीवन शैली की शुरूआत के रूप में परिभाषित किया गया जो बाद में जटिल सभ्यता के रूप में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा।
ताओवाद और कन्फ्यूशियस विद्यालयों के विचार विश्व की दो प्रमुख दार्शिनक धाराओं को चीन के उपहार थे। “मृत्यु के बाद जीवन ‘की अवधारणा पर निर्मित प्राचीन चीनी सम्राटों के मकबरे बेमिसाल हैं। चीन ने एक आश्चर्यजनक वास्तुकला के रूप में बनाई गयी अपनी “चीन की महान दीवार” जैसे निर्माण से दुनिया को हैरान कर दिया। कागज, रेशम, मृतिका – शिल्प और कांस्य से बनी हुई कुछ उल्लेखनीय श्रेणी की वस्तुएं हैं जिनपर इतिहास के प्रारंभिक काल में चीन का पूरी तरह से अधिकार था। गुणवत्ता, विविधता और प्राचीन सांस्कृतिक स्मृति चिन्हों की समृद्धि और इनसे जुड़ी शानदार प्रौद्योगिकियों के मामले में, चीन का दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में महत्वपूर्ण स्थान है।
चीन में करीब 12 हजार वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए नवपाषण युग ने (सभाओं, मछली पकड़ने और शिकार करने ) जैसी अर्थव्यवस्था से उत्पादन रूपी अर्थव्यवस्था में होता बदलाव देखा । इस संदर्भ में, मध्य चीन में पीलगंग संस्कृति, लियांगझू संस्कृति और यांगशाओ संस्कृति महत्वपूर्ण रही हैं। व्यवस्थित कृषि के विकास ने बर्तनों और औजारों सहित विभिन्न संबंधित गतिविधियों में भी मदद प्रदान की। पत्थर के टुकड़ो से बने हथियारों की जगह अच्छी तरह से तराशे गये उपकरणों ने ले ली।
कृषि और उससे संबंधित जरूरतों को पूरा करने के लिए कुदाल, चक्की के पाट, दरांती, हलों के फल, कुल्हाड़ी, बसूली जैसे पत्थरों के औजार थे।
समय बीतने के साथ प्राचीन लोगों ने बर्तनों का उत्पादन किया और काफी हद तक अपने दैनिक जीवन में सुधार कर लिया। विभिन्न रंगों से चित्रित मिट्टी के बर्तनों ने अपनी खास छटा बिखेरी। रंगों से चित्रित कलाओँ ने लोगों की गतिविधियों के साथ साथ प्रारंभिक युग की कलात्मक प्रतिभा को भी प्रस्तुत किया।
खासतौर पर शांग और झोउ राजवंशों ने (18 वीं सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी बीसीई तक) प्राचीन दुनिया के उत्कृष्ट धातु शिल्प में विशेष उपलब्धि हासिल की। प्राचीन चीन में बनाये गये कांस्य के अनेक पात्र वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। कांस्य पर की जाने वाली पालिश के बाद यह चमकीले सुनहरे रंग की आभा देता है और देखने में बहुत खूबसूरत लगता है। लेकिन चीन की क्षारीय मिट्टी कांस्य के लिए उपयुक्त है और इसको आकर्षक हरे और नीले रंग में परिवर्तित करने के बाद यह आंखों को मूल धातु से ज्यादा सुन्दर लगता है। हथियारों के लिए कांस्य का उपयोग प्रारम्भ हो गया (कुल्हाड़ी, बरछी, कटार, तलवारें) छेनी, बसूला, आरी और खेती के उपकरण फावड़ों, फावड़ियों, दंराती, मछली हुक को भी बनाया जाने लगा। कब्र में मिलने वाले हथियार इनके स्वामियों की शक्ति को दर्शाते हैं और साथ ही यह भी पता चलता है कि दैनिक जीवन में इनका उपयोग होता था लेकिन खाना पकाने-बनाने के बर्तन, खाना रखने के कन्टेनर, मदिरा और जल आदि रखने के बर्तन और उनकी सुंदरता एवं उच्च शिल्प ने चीन और विदेशों का सबसे ज्यादा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। वे इनका उपयोग अपने देवताओं और पूर्वजों को बलिदान करने में किया करते थे और बाद में इन्हें मृत व्यक्ति के साथ दफना दिया जाता था।
कांस्य को ढाल कर वस्तुओं का निर्माण भारी गोल बर्तनों को बनाने में किया जाता था। चीनी कांसे का उपयोग संगीत वाद्ययंत्र, वजन और माप यंत्र, रथ एवं घोड़े का साजो-सामान, गहने और दैनिक उपयोग की विविध वस्तुओं को बनाने में भी करते थे। उनको अतिरिक्त घुंडियों, हैडिंलों और घनी सजावट के साथ बनाया जाता था।
कांसे के मामले में एक पृथक उत्कृष्ट श्रेणी कांस्य दर्पण है। इसके सामने का हिस्सा काफी चमकदार है और पिछला हिस्सा विभिन्न सजावटी डिजायनों और शिलालेखों से ढका है। अधिकांश गोल है तो कुछ चौकोर और कुछ का आकार फूलों की पंखुड़ियों जैसा है तो कुछ हैंडिल के साथ हैं। ये अधिकांशत: हान राजवंश और तांग राजवंश की युद्धरत अवधि से संबंधित हैं।
चीनी कला वस्तुओं में हरिताश्म से बनी वस्तुओं का एक विशेष स्थान है। हरिताश्म एक हल्का हरा, सलेटी और भूरे रंग का खूबसूरत सघन पत्थर है। इस प्रकार से यह ना सिर्फ आंखों को भाता है बल्कि स्पर्श करने में भी अच्छा है। इसकी शुरूआत नवपाषाण युग में पत्थर उद्योग के विस्तार के रूप में हुई। चीनी हरिताश्म को पुण्य और भलाई के पत्थर के रूप में मानते थे और उनका विश्वास था कि इस तरह के गुणों को अपने स्वजनों को दिया जा सकता है। इसलिए, हरिताश्म का उपयोग विशेष अनुष्ठानों और संस्कार क्रिया-कलापों में आमतौर पर किया जाता था लेकिन इसका उपयोग गहनें, पेंडेंट और छोटे पशुओं की आकृति बनाने में भी किया जाता था। आमतौर पर, हरिताश्म से बनी वस्तुओं को संस्कार के लिए बनी वस्तुओं, धारण और दफनाई जाने वाली वस्तुओं की श्रेणी में बांटा जा सकता है।
इसका तकनीकी कारण यह भी था कि हरिताश्म के भारी गोल आकार में होने के कारण इसे पतले, तीखे और घुमावदार आकारों में नहीं ढाला जा सकता था।
चीनी मिट्टी से बने बर्तन चीन की सजावटी कला का सबसे स्थाई पहलू हैं और जिसमें उच्च गुणवत्ता वाली मुल्तानी मिट्टी की उपलब्धता को प्रमुख महत्व दिया गया था। वे अपनी बेहतर सतह और शानदार रंगों के लिए उल्लेखनीय हैं जिन्हें अग्नि की अत्याधुनिक तकनीक से प्राप्त किया गया है। थोड़े से आयरन ऑक्साईड को मिलाकर उच्च ताप से हरित रोगन तैयार किया जाता और आमतौर पर सीलाडॉन ग्लेज कहे जाने वाले एक हल्के ताप के वातावरण में बर्तन को पकाया जाता था।
चीनी के बर्तनों की उपस्थिति के साथ चीन में चीनी बर्तनों के इतिहास में एक नये युग की शुरूआत हुई। करीब 3500 वर्ष पूर्व, शांग काल में, एक सफेद पत्थर उपयोग में आया जो चीनी मिट्टी के बर्तनों के ही समान था और बाद में इसका विकसित उपयोग पूर्वी हान, तांग, संग, युआंन, मिंग और किंग राजवंशों
में किया गया।
मिट्टी के बर्तनों के बाद आदिम सफेद मिट्टी के बर्तनों बने और सफेद मिट्टी के बर्तनों का बदलाव नीले और सफेद ग्लेज मिश्रित बर्तनों में हुआ। ग्लेज मिश्रित लाल रंग से रंगे मिट्टी के बर्तन भी प्रचलन में रहे। इसके बाद, विविध रंगों से बने मिट्टी के बर्तन प्रचलित हुए। चीन में बने चीनी के बर्तन अपने विभिन्न आकारों और डिजाइनों, गहनों की चमक और इसके कपड़े अपनी अनुकूलता और उज्जवलता के लिए जाने जाते हैं। मिट्टी के बर्तनों के मामले में चीनी बर्तन उद्योग ने चीन को विश्वभर में प्रसिद्धि दी।
तांग राजवंश के विविध रंगों से बने बर्तनों में शीशे और आकार के बीच मनोहर पंक्तियों को उकेरने पर जोर दिया गया। लेकिन इस समयावधि को आमतौर पर उल्लेखनीय रूप से तीन रंगों से मिश्रित कांच कला युक्त मिट्टी के बर्तनों की उत्कृष्ट श्रेणी के रूप में जाना जाता है। इन्हें गहरे नीले आकाश, बैंगनी, गहरे पीले और गेरूएं, गहरे और हल्के हरे और लाल रंग से सजाया जाता था इन रंगों को अग्नि के हल्के तापमान से बनी उपयुक्त धातु ऑक्साइड के मिश्रण से तैयार किया जाता था। विविध रंगों के संगम ने तिरंगे बर्तनों को विशेष आकर्षक बना दिया और ये तांग राजवंश के काल में दफनाने वाली वस्तुओं में सबसे लोकप्रिय बन गये। इस श्रेणी के मिटटी के बर्तनों में मानव और पशुओं की आकृतियां इनकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं।
किंन और हांन राजवंशों से मृतक लोगों के साथ बड़ी मात्रा में शानदार समानों और मिट्टी के बर्तनों को दफनाने की प्रथा आरंभ हुई। चीनी सम्राटों का मानना था कि मरने के बाद लोग एक नई दुनिया में जीवन जीने के लिए जाते हैं और इसलिए उनके मरने के बाद वे सबकुछ अपने साथ ले जाना चाहते थे जिसका उपयोग उन्होंने अपने जीवनकाल में किया था। इसलिए, सम्राट के मकबरे का एक बड़ा टीला सा बन जाता था जिसमें बहुत से बर्तनों, अनाज के भंडार, हथियार, पशु, दैनिक उपयोग की वस्तुओं, घोड़ों, रथों और मुहरों आदि को दफन किया जाता था। टेराकोट्टा सेना और टेराकोट्टा योद्धा मृतक और उसके बाद के जीवन को मानने वालों में प्राचीन चीनी अंतिम संस्कार के सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं। उन्होंने शाही अंतिम संस्कार की रस्मों को पूरी तरह से निभाया। भूमिगत कब्रों में अपने भारी कवच के साथ दफनाए गये योद्धाओं के हाथों में उनके हथियार यह दिखाते थे कि वे अपने सम्राट की रक्षा के लिए किसी भी समय अपनी जान कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। अपने खूबसूरत रेशम के लिबास के साथ हजारों की संख्या में महिला गणिकाएं नृत्य कर रही हैं और सुअरों, घोड़ो, पशु, भेड़, बकरियों, कुत्तों और मुर्गियों को उनके भोजन के लिए उनके साथ बांध दिया जाता था।
भारत से चीन आए बौद्ध धर्म का परिचय धार्मिक प्रतिमाओं के रूप में सामने आया जो अंततः स्वयं के एक वर्ग के रूप में विकसित हुआ और वेई, सुई, तांग, संग, मिंग और किंग राजवंशों के उत्कृष्ट काल तक पहुँचा। इन बौद्ध मूर्तियों को उत्कृष्ट शिल्प कौशल के माध्यम से पत्थर के साथ-साथ कांसे से बनाया गया और तांग काल में यह अपने चरमोत्कर्ष तक पहुंची। अपने विकास के दौरान, चीनी मूर्तिकला को विविधता प्रदान करने के लिए नये रूपों और शैलियों को आत्मसात किया गया। द यून गंग, द लांगमेन और दाजू ग्रोटोज इस क्षेत्र की कृतियों के सिर्फ कुछ एक उदाहरण हैं।
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राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क=संदर्भ सामग्री
राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क (एनकेएन) सीमाओं से रहित ज्ञान आधारित समाज बनाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। पांच फरवरी को एनकेएन की वेबसाइट और लोगो जारी होते ही एनकेएन के द्वार पूरे समुदाय के लिए खुल गए। इससे ज्ञान आधारित समुदाय और समस्त मानवजाति को अभूतपूर्व लाभ होगा। इस ज्ञान नेटवर्क का उद्देश्य आवश्यक शोध सुविधाओं वाले गुणवत्तापूर्ण संस्थान बनाना तथा उच्च प्रशिक्षणप्राप्त पेशेवरों का समूह तैयार करना है, जो देश की कोशिश का महत्वपूर्ण अंग है। एनकेएन अत्याधुनिक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क है। यह भारत की सूचना अवसंचना के विकास को सुगम बनाएगा, अनुसंधान में तेजी लाएगा और अगली पीढ़ी के एप्लीकेशंस और सेवाएं तैयार करेगा। एनकेएन की परिकल्पना उच्च उपलब्धता, गुणवत्तापूर्ण सेवा, सुरक्षा और विश्वसनीयता उपलब्ध कराने के लिए की गई है।
राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क (एनकेएन) योजना का लक्ष्य सशक्त और सुदृढ़ आंतरिक भारतीय नेटवर्क स्थापित करना है, जो सुरक्षित और विश्वसनीय कनेक्टीविटी में सक्षम होगा। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उच्च शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी देखभाल, कृषि और शासन से सम्बद्ध सभी हितधारकों को समान मंच पर लाएगा।
एनकेएन का विज़न और उत्साह के साथ इस्तेमाल करते हुए सभी ऊर्जावान संस्थान सूचना और ज्ञान तक पहुंच बनाने के लिए स्थान और समय की सीमाओं को पार करने में सक्षम होंगे और अपने तथा समाज के लिए इससे जुड़े लाभ हासिल कर सकेंगे। एनकेएन की स्थापना 1500 से ज्यादा संस्थानों से सम्पर्क के साथ देश में ज्ञान की क्रांति लाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। एनकेएन का मकसद हाई बैंडविड्थ /लो बैटरी नेटवर्क के साथ देश के समस्त ज्ञान और शोध संस्थानों को जोड़ना है।
वैश्विक स्तर पर प्रमुख शोध एवं नवरचना, बहुविषयी और सहयोगपूर्ण परिप्रेक्ष्य का रुख कर रहे हैं और उनके लिए महत्वपूर्ण संचार एवं संगणना क्षमता की जरूरत पड़ती है। भारत में, एनकेएन का लक्ष्य इस प्रकार के परिप्रेक्ष्य में बदलाव के लिए अपनी मल्टी-गीगाबाइट क्षमता के साथ देशभर के सभी विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, स्वास्थ्य की देखभाल और कृषि से सम्बद्ध संस्थानों को आपस में जोड़ना है। परमाणु, अंतरिक्ष और रक्षा अनुसंधान क्षेत्रों की प्रमुख मिशन आधारित एजेंसियां भी एनकेएन का अंग हैं। सूचना और जानकारी का प्रवाह संभव बनाते हुए, नेटवर्क पहुंच (एक्सेस) के महत्वपूर्ण मसले का हल करता है और शोध से सम्बद्ध देश के प्रयासों को समृद्ध करने के लिए सहयोग का नया परिप्रेक्ष्य तैयार करता है। नेटवर्क की परिकल्पना सकारात्मक रुख पर आधारित है जिसमें भविष्य की जरूरतों तथा ऐसी नई संभावानाओं को ध्यान में रखा गया है जो इस अवसंरचना में इस्तेमाल और समाविष्ट लाभ के आधार पर पनप सकती हैं। इससे ज्ञान की क्रांति आएगी, जो समाज में परिवर्तन का वाहक और समावेशी विकास को बढ़ावा देने का माध्यम बनेगी।
पृष्ठभूमि
एनकेएन की स्थापना की योजना पर भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार (पीएसए) के कार्यालय और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (एनकेसी) में विशेषज्ञों, संभावित यूजर्स, दूरसंचार सेवा प्रदाताओं, शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थानों सहित मुख्य हितधारकों के साथ सहयोगपूर्ण अनुबंध के बाद, विचार-विमर्श किया गया और फिर उसे अंतिम रूप दिया गया। इस विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप एक ऐसा नेटवर्क तैयार करने के उत्कृष्ट दृष्टिकोण पर सर्वसम्मति बन सकी, जो सभी क्षेत्रों के लिए एकीकृत आधार बन सके।
भारत सरकार ने एनकेएन की स्थापना के लिए भारत सरकार के पीएसए की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति (एचएलसी) का गठन किया। राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र का चयन एनकेएन की अनुपालन एजेंसी के रूप में किया गया। एनकेएन का विज़न एचएलसी द्वारा गठित प्रौद्योगिकी सलाहकार समिति (टीएसी) द्वारा बनाई गई कार्य योजना में परिलक्षित हुआ।
कैबिनेट ने 5990 करोड़ रुपये की लागत वाले एनकेएन को मार्च 2010 में मंजूरी दी। एनकेएन का शुरूआती चरण राष्ट्रीय सूचना केंद्र (एनआईसी) द्वारा सफलतापूर्वक पूरा किए जाने का संकेत है।
मुख्य बिंदु
एनकेएन की संरचना की परिकल्पना विश्वसनीयता, उपलब्धता और मापनीयता के लिए की गई है। इस नेटवर्क में अल्ट्रा-हाई स्पीड कोर है जो मल्टीपल 2.5/10जी से शुरू होता है और 40/100 गीगाबाइट प्रति सेकेंड (जीबीपीएस) तक जाता है। इस कोर के साथ डिस्ट्रीब्यूशन लेयर है, जो सभी जिलों को समुचित गति से कवर करती है।
दूसरे छोर पर भागीदार संस्थान एनकेएन की बदौलत बिना किसी रुकावट के एनकेएन के साथ गीगाबाइट स्पीड से जुड़ सकेगा। एनकेएन, ज्ञान आधारित समाज विकसित करने के लिए भारत के लिए महत्वपूर्ण सूचना अवसंरचना हो सकता है। एनकेएन एक महत्वपूर्ण कदम है जो देशभर के वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं और छात्रों को महत्वपूर्ण एवं उभरते क्षेत्रों में मानव विकास को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर काम करने में सक्षम बनाएगा –
· हाई-स्पीड बैकबोन कनेक्टीविटी की स्थापना करना, जो ज्ञान और सूचना के आदान-प्रदान में सक्षम बनाए।
· सहयोगपूर्ण अनुसंधान, विकास और नवरचना संभव बनाना।
·अभियांत्रिकी, विज्ञान, चिकित्सा आदि जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में उच्च दूरस्थ शिक्षा में सहयोग करना।
· ई-गवर्नेंस के लिए अल्ट्रा हाई स्पीड बैकबोन सुगम बनाना।
· अनुसंधान, शिक्षा, स्वास्थ्य, वाणिज्य एवं प्रशासन के क्षेत्र में विभिन्न वर्गीय नेटवर्क्स का एकीकरण सम्भव बनाना।
कनेक्टीविटी
नेटवर्क के बैकबोन की शुरुआत 2.5 जीबीपीएस से है और भारत भर में 7 सुपरकोर स्थानों (पूरी तरह परस्पर संबद्ध) के बीच उत्तरोत्तर बढ़ते हुए 10 जीबीपीएस कनेक्टीविटी पर है। यह नेटवर्क आगे विविध 2.5/10 जीबीपीएस के साथ 26 मुख्य स्थानों पर आंशिक तौर पर पास्परिक संबद्ध कनेक्टीविटी के साथ सुपरकोर स्थानों पर फैला है। डिस्ट्रीब्यूशन लेयर पूरे देश को 2.5/10 जीबीपीएस की स्पीड के विविध लिंक्स का इस्तेमाल करते हुए नेटवर्क के मुख्य हिस्से से जोड़ती है। उपभोक्ताओं को 1 जीबीपीएस की स्पीड से कनेक्ट किया जा रहा है।
नेटवर्क की संरचना और प्रशासन की संरचना यूजर्स को डिस्ट्रीब्यूशन लेयर के साथ कनेक्ट होने के भी विकल्प देती है। एनकेएन विशेष महत्व वाले समूहों के लिए वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क्स (वीपीएन) की रचना भी संभव बनाता है। एनकेएन वैश्विक सहयोगपूर्ण अनुसंधान के लिए अपने यूजर्स को अंतर्राष्ट्रीय कनेक्टीविटी उपलब्ध कराता है। वर्तमान में एनकेएन ट्रांस यूरेशिया इंफार्मेशन नेटवर्क (टीईआईएन 3)के साथ जुड़ा हुआ है। ग्लोबल रिंग नेटवर्क फॉर एडवांस एप्लीकेशंस डेवलपमेंट (जीएलओआरआईएडी) के साथ भी इसी तरह की कनेक्टीविटी बनाने की योजना है।
एप्लीकेशंस
देशव्यापी वर्चुअल क्लासरूम
एनकेएन प्रभावशाली दूरस्थ शिक्षा प्रदान करने का एक ऐसा मंच है जहां शिक्षक और छात्र कंप्यूटर के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं। भारत जैसे देश में यह खासतौर पर महत्वपूर्ण है जहां भौगोलिक, बुनियादी ढांचे की कमी आदि जैसे कारणों की वजह से शिक्षा तक पहुंच सीमित है। यह नेटवर्क विभिन्न संस्थानों के बीच सूचना मसलन कक्षाओं के व्याख्यानों, प्रस्तुतियों और हैंडआउट्स के आदान-प्रदान में सक्षम बनाता है।
सहयोगपूर्ण अनुसंधान
एनकेएन जीएलओआरआईएडी, टीईआईएन3, जीएआरयूडीए, सीईआरएन जैसी विभिन्न इकाइयों के अनुसंधानकर्ताओं के बीच सहयोग संभव बनाता है। एनकेएन वैज्ञानिक डाटाबेस के आदान-प्रदान और उच्च अनुसंधान सुविधाओं तक एक्सेस भी संभव बनाता है।
वर्चुअल लाइब्रेरी
वर्चुअल लाइब्रेरी में विभिन्न संस्थानों में पत्रिकाओं, पुस्तकों और शोध पत्रों के आदान-प्रदान होता है। एनकेएन के लिए यह स्वाभाविक एप्लीकेशन है।
संगणना संसाधनों का आदान-प्रदान
राष्ट्रीय सुरक्षा, औद्योगिक उत्पादकता और विज्ञान एवं अभियांत्रिकी में आगे बढ़ने के लिए तेज गति से संगणना महत्वपूर्ण हैं। नेटवर्क बड़ी तादाद में संस्थानों को मौसम की निगरानी, भूकम्प अभियांत्रिकी और कंप्यूटर के इस्तेमाल वाले अन्य अहम क्षेत्रों को उच्च अनुसंधान के लिए सक्षम बनाता है।
ग्रिड कंप्यूटिंग
एनकेएन में हाई बैंडविड्थ को लो लेटेंसी के साथ संचालित करने और ग्रिड कंप्यूटिंग के आवरण का प्रावधान करने की क्षमता होती है। जलवायु परिवर्तन/धरती का बढ़ता तापमान, लार्ज हैड्रॉन कोलिडर (एलएचसी) और आईटीईआर जैसी विज्ञान परियोजनाएं कुछ ग्रिड आधारित एप्लीकेशंस हैं। एनकेएन ऐसी बहुत से नवीन एप्लीकेशंस को समझने का मंच हो सकता है। गरूड ग्रिड ने एनकेएन में जाकर अपनी क्षमता और स्थिरता बढ़ाई है।
नेटवर्क टेक्नॉलोजी टेस्ट बेड
एनकेएन सेवाओं को उत्पादन नेटवर्क को उपलब्ध कराने से पहले उनके परीक्षण और वैधता के लिए टेस्ट बैड (परीक्षण मंच) मुहैया कराता है। एनकेएन नए हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के परीक्षण, विक्रेता अंतरसक्रियता (सूचनाओं के आदान-प्रदान और इस्तेमाल करने की क्षमता) आदि भी उपलब्ध कराता है।
ई-गवर्नेंस
एनकेएन ई-गवर्नेंस अधोसंरचना जैसे सरकारी डाटा केंद्रों और नेटवर्क्स के लिए सुपर हाईवे की तरह काम करता है। एनकेएन ई-गवर्नेंस एप्लीकेशंस के लिए जरूरी बड़ी मात्रा में डाटा ट्रांसफर करने की सुविधा भी देता है।
एनकेएन सेवाएं
जेनरिक सेवाएं: इंटरनेट, इंट्रानेट, नेटवर्क मैनेजमेंट व्यूज, ई-मेल, मैसेजिंग गेटवेज़, कैचिंग गेजवेज़, डोमेन नेम सिस्टम, वेब होस्टिंग, वॉयस ओवर आईपी, मल्टी प्वाइंट कंट्रोल यूनिट (एमसीयू) सर्विसेज, वीडियो पोर्टल्स, एसएमएस गेटवे, को-लोकेशन सर्विसेज, वीडियो स्ट्रीमिंग आदि।
सामुदायिक सेवाएं: शोयर्ड स्टोरेज, ई-मेल लिस्ट सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन (एलआईएसटीएसईआरवी), ऑथेंटीकेशन सर्विस, ईवीओ, सेशन इंनिशिएशन प्रॉटोकॉल (एसआईपी), कोलेब्रेशन सर्विस, कंटेंट डिलिवरी सर्विस, ईयू-भारत ग्रिड के साथ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, ग्लोबल रिंग नेटवर्क फॉर एडवांस एप्लीकेशंस डेवलपमेंट (जीएलओआरआईएडी) आदि।
विशेष सेवाएं: वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क स्टिचिंग सर्विसेज
(वीपीएन@एल2) वर्चुअल प्राइवेट वायर सर्विस/वर्चुअल प्राइवेट लैन सर्विस, (वीपीएन@एल3) आदि।
दोनों देशो के बीच ऐतिहासिक मित्रता के आदान-प्रदान को और बढ़ाने के लिए वर्ष 2006 को भारत-चीन मित्रता वर्ष के रूप में घोषित किया गया था। इस वर्ष के एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तौर पर, वर्ष 2006-07 के दौरान चीन के चार प्रमुख शहरों- बीजिंग, झेंग्झौ चूंगकींग, और गुआंगज़ौ में “प्राचीन चीन की निधि” पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी में चीन के लोगों के लिए उनके ही घर में भारतीय कला से जुड़ी सौ कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया। इसके बाद, वर्ष 2011 में भारत के चार शहरों- नई दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और कोलकाता में भी “प्राचीन चीन की निधि” पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी का आयोजन संयुक्त रूप से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और चीन के सांस्कृतिक विरासत प्रशासन द्वारा किया गया। इस प्रदर्शनी के दौरान निओलिथिक से क्विंग राजवंश की विभिन्न कलाओं से जुड़ी सौ प्राचीन काल की वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया। चीनी वस्तुओं की विभिन्न श्रेणियों जैसे आभूषणों, सजावटी वस्तुओं,मिट्टी और धातु आदि से बने बर्तनों का प्रदर्शन नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में फिलहाल जारी प्रदर्शनी में किया गया। यह प्रदर्शनी 20 मार्च, 2011 तक चली।
इस प्रदर्शनी का उद्देश्य दोनों देशों के लोगों के बीच मित्रता के संबंध को और मजबूत बनाना है।
चीन हमेशा से अपनी संस्कृति, कला, वास्तुकला, विश्वास, दर्शन आदि के लिए दुनिया में आकर्षण का एक केन्द्र है। पेकिंग मानव के अवशेषों के साक्ष्य के साथ यह आदिम मानव के विकास का भी गवाह रहा है। नवपाषाण युग में, इसे व्यवस्थित जीवन शैली की शुरूआत के रूप में परिभाषित किया गया जो बाद में जटिल सभ्यता के रूप में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा।
ताओवाद और कन्फ्यूशियस विद्यालयों के विचार विश्व की दो प्रमुख दार्शिनक धाराओं को चीन के उपहार थे। “मृत्यु के बाद जीवन ‘की अवधारणा पर निर्मित प्राचीन चीनी सम्राटों के मकबरे बेमिसाल हैं। चीन ने एक आश्चर्यजनक वास्तुकला के रूप में बनाई गयी अपनी “चीन की महान दीवार” जैसे निर्माण से दुनिया को हैरान कर दिया। कागज, रेशम, मृतिका – शिल्प और कांस्य से बनी हुई कुछ उल्लेखनीय श्रेणी की वस्तुएं हैं जिनपर इतिहास के प्रारंभिक काल में चीन का पूरी तरह से अधिकार था। गुणवत्ता, विविधता और प्राचीन सांस्कृतिक स्मृति चिन्हों की समृद्धि और इनसे जुड़ी शानदार प्रौद्योगिकियों के मामले में, चीन का दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में महत्वपूर्ण स्थान है।
चीन में करीब 12 हजार वर्ष पूर्व प्रारंभ हुए नवपाषण युग ने (सभाओं, मछली पकड़ने और शिकार करने ) जैसी अर्थव्यवस्था से उत्पादन रूपी अर्थव्यवस्था में होता बदलाव देखा । इस संदर्भ में, मध्य चीन में पीलगंग संस्कृति, लियांगझू संस्कृति और यांगशाओ संस्कृति महत्वपूर्ण रही हैं। व्यवस्थित कृषि के विकास ने बर्तनों और औजारों सहित विभिन्न संबंधित गतिविधियों में भी मदद प्रदान की। पत्थर के टुकड़ो से बने हथियारों की जगह अच्छी तरह से तराशे गये उपकरणों ने ले ली।
कृषि और उससे संबंधित जरूरतों को पूरा करने के लिए कुदाल, चक्की के पाट, दरांती, हलों के फल, कुल्हाड़ी, बसूली जैसे पत्थरों के औजार थे।
समय बीतने के साथ प्राचीन लोगों ने बर्तनों का उत्पादन किया और काफी हद तक अपने दैनिक जीवन में सुधार कर लिया। विभिन्न रंगों से चित्रित मिट्टी के बर्तनों ने अपनी खास छटा बिखेरी। रंगों से चित्रित कलाओँ ने लोगों की गतिविधियों के साथ साथ प्रारंभिक युग की कलात्मक प्रतिभा को भी प्रस्तुत किया।
खासतौर पर शांग और झोउ राजवंशों ने (18 वीं सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी बीसीई तक) प्राचीन दुनिया के उत्कृष्ट धातु शिल्प में विशेष उपलब्धि हासिल की। प्राचीन चीन में बनाये गये कांस्य के अनेक पात्र वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। कांस्य पर की जाने वाली पालिश के बाद यह चमकीले सुनहरे रंग की आभा देता है और देखने में बहुत खूबसूरत लगता है। लेकिन चीन की क्षारीय मिट्टी कांस्य के लिए उपयुक्त है और इसको आकर्षक हरे और नीले रंग में परिवर्तित करने के बाद यह आंखों को मूल धातु से ज्यादा सुन्दर लगता है। हथियारों के लिए कांस्य का उपयोग प्रारम्भ हो गया (कुल्हाड़ी, बरछी, कटार, तलवारें) छेनी, बसूला, आरी और खेती के उपकरण फावड़ों, फावड़ियों, दंराती, मछली हुक को भी बनाया जाने लगा। कब्र में मिलने वाले हथियार इनके स्वामियों की शक्ति को दर्शाते हैं और साथ ही यह भी पता चलता है कि दैनिक जीवन में इनका उपयोग होता था लेकिन खाना पकाने-बनाने के बर्तन, खाना रखने के कन्टेनर, मदिरा और जल आदि रखने के बर्तन और उनकी सुंदरता एवं उच्च शिल्प ने चीन और विदेशों का सबसे ज्यादा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। वे इनका उपयोग अपने देवताओं और पूर्वजों को बलिदान करने में किया करते थे और बाद में इन्हें मृत व्यक्ति के साथ दफना दिया जाता था।
कांस्य को ढाल कर वस्तुओं का निर्माण भारी गोल बर्तनों को बनाने में किया जाता था। चीनी कांसे का उपयोग संगीत वाद्ययंत्र, वजन और माप यंत्र, रथ एवं घोड़े का साजो-सामान, गहने और दैनिक उपयोग की विविध वस्तुओं को बनाने में भी करते थे। उनको अतिरिक्त घुंडियों, हैडिंलों और घनी सजावट के साथ बनाया जाता था।
कांसे के मामले में एक पृथक उत्कृष्ट श्रेणी कांस्य दर्पण है। इसके सामने का हिस्सा काफी चमकदार है और पिछला हिस्सा विभिन्न सजावटी डिजायनों और शिलालेखों से ढका है। अधिकांश गोल है तो कुछ चौकोर और कुछ का आकार फूलों की पंखुड़ियों जैसा है तो कुछ हैंडिल के साथ हैं। ये अधिकांशत: हान राजवंश और तांग राजवंश की युद्धरत अवधि से संबंधित हैं।
चीनी कला वस्तुओं में हरिताश्म से बनी वस्तुओं का एक विशेष स्थान है। हरिताश्म एक हल्का हरा, सलेटी और भूरे रंग का खूबसूरत सघन पत्थर है। इस प्रकार से यह ना सिर्फ आंखों को भाता है बल्कि स्पर्श करने में भी अच्छा है। इसकी शुरूआत नवपाषाण युग में पत्थर उद्योग के विस्तार के रूप में हुई। चीनी हरिताश्म को पुण्य और भलाई के पत्थर के रूप में मानते थे और उनका विश्वास था कि इस तरह के गुणों को अपने स्वजनों को दिया जा सकता है। इसलिए, हरिताश्म का उपयोग विशेष अनुष्ठानों और संस्कार क्रिया-कलापों में आमतौर पर किया जाता था लेकिन इसका उपयोग गहनें, पेंडेंट और छोटे पशुओं की आकृति बनाने में भी किया जाता था। आमतौर पर, हरिताश्म से बनी वस्तुओं को संस्कार के लिए बनी वस्तुओं, धारण और दफनाई जाने वाली वस्तुओं की श्रेणी में बांटा जा सकता है।
इसका तकनीकी कारण यह भी था कि हरिताश्म के भारी गोल आकार में होने के कारण इसे पतले, तीखे और घुमावदार आकारों में नहीं ढाला जा सकता था।
चीनी मिट्टी से बने बर्तन चीन की सजावटी कला का सबसे स्थाई पहलू हैं और जिसमें उच्च गुणवत्ता वाली मुल्तानी मिट्टी की उपलब्धता को प्रमुख महत्व दिया गया था। वे अपनी बेहतर सतह और शानदार रंगों के लिए उल्लेखनीय हैं जिन्हें अग्नि की अत्याधुनिक तकनीक से प्राप्त किया गया है। थोड़े से आयरन ऑक्साईड को मिलाकर उच्च ताप से हरित रोगन तैयार किया जाता और आमतौर पर सीलाडॉन ग्लेज कहे जाने वाले एक हल्के ताप के वातावरण में बर्तन को पकाया जाता था।
चीनी के बर्तनों की उपस्थिति के साथ चीन में चीनी बर्तनों के इतिहास में एक नये युग की शुरूआत हुई। करीब 3500 वर्ष पूर्व, शांग काल में, एक सफेद पत्थर उपयोग में आया जो चीनी मिट्टी के बर्तनों के ही समान था और बाद में इसका विकसित उपयोग पूर्वी हान, तांग, संग, युआंन, मिंग और किंग राजवंशों
में किया गया।
मिट्टी के बर्तनों के बाद आदिम सफेद मिट्टी के बर्तनों बने और सफेद मिट्टी के बर्तनों का बदलाव नीले और सफेद ग्लेज मिश्रित बर्तनों में हुआ। ग्लेज मिश्रित लाल रंग से रंगे मिट्टी के बर्तन भी प्रचलन में रहे। इसके बाद, विविध रंगों से बने मिट्टी के बर्तन प्रचलित हुए। चीन में बने चीनी के बर्तन अपने विभिन्न आकारों और डिजाइनों, गहनों की चमक और इसके कपड़े अपनी अनुकूलता और उज्जवलता के लिए जाने जाते हैं। मिट्टी के बर्तनों के मामले में चीनी बर्तन उद्योग ने चीन को विश्वभर में प्रसिद्धि दी।
तांग राजवंश के विविध रंगों से बने बर्तनों में शीशे और आकार के बीच मनोहर पंक्तियों को उकेरने पर जोर दिया गया। लेकिन इस समयावधि को आमतौर पर उल्लेखनीय रूप से तीन रंगों से मिश्रित कांच कला युक्त मिट्टी के बर्तनों की उत्कृष्ट श्रेणी के रूप में जाना जाता है। इन्हें गहरे नीले आकाश, बैंगनी, गहरे पीले और गेरूएं, गहरे और हल्के हरे और लाल रंग से सजाया जाता था इन रंगों को अग्नि के हल्के तापमान से बनी उपयुक्त धातु ऑक्साइड के मिश्रण से तैयार किया जाता था। विविध रंगों के संगम ने तिरंगे बर्तनों को विशेष आकर्षक बना दिया और ये तांग राजवंश के काल में दफनाने वाली वस्तुओं में सबसे लोकप्रिय बन गये। इस श्रेणी के मिटटी के बर्तनों में मानव और पशुओं की आकृतियां इनकी सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं।
किंन और हांन राजवंशों से मृतक लोगों के साथ बड़ी मात्रा में शानदार समानों और मिट्टी के बर्तनों को दफनाने की प्रथा आरंभ हुई। चीनी सम्राटों का मानना था कि मरने के बाद लोग एक नई दुनिया में जीवन जीने के लिए जाते हैं और इसलिए उनके मरने के बाद वे सबकुछ अपने साथ ले जाना चाहते थे जिसका उपयोग उन्होंने अपने जीवनकाल में किया था। इसलिए, सम्राट के मकबरे का एक बड़ा टीला सा बन जाता था जिसमें बहुत से बर्तनों, अनाज के भंडार, हथियार, पशु, दैनिक उपयोग की वस्तुओं, घोड़ों, रथों और मुहरों आदि को दफन किया जाता था। टेराकोट्टा सेना और टेराकोट्टा योद्धा मृतक और उसके बाद के जीवन को मानने वालों में प्राचीन चीनी अंतिम संस्कार के सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं। उन्होंने शाही अंतिम संस्कार की रस्मों को पूरी तरह से निभाया। भूमिगत कब्रों में अपने भारी कवच के साथ दफनाए गये योद्धाओं के हाथों में उनके हथियार यह दिखाते थे कि वे अपने सम्राट की रक्षा के लिए किसी भी समय अपनी जान कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। अपने खूबसूरत रेशम के लिबास के साथ हजारों की संख्या में महिला गणिकाएं नृत्य कर रही हैं और सुअरों, घोड़ो, पशु, भेड़, बकरियों, कुत्तों और मुर्गियों को उनके भोजन के लिए उनके साथ बांध दिया जाता था।
भारत से चीन आए बौद्ध धर्म का परिचय धार्मिक प्रतिमाओं के रूप में सामने आया जो अंततः स्वयं के एक वर्ग के रूप में विकसित हुआ और वेई, सुई, तांग, संग, मिंग और किंग राजवंशों के उत्कृष्ट काल तक पहुँचा। इन बौद्ध मूर्तियों को उत्कृष्ट शिल्प कौशल के माध्यम से पत्थर के साथ-साथ कांसे से बनाया गया और तांग काल में यह अपने चरमोत्कर्ष तक पहुंची। अपने विकास के दौरान, चीनी मूर्तिकला को विविधता प्रदान करने के लिए नये रूपों और शैलियों को आत्मसात किया गया। द यून गंग, द लांगमेन और दाजू ग्रोटोज इस क्षेत्र की कृतियों के सिर्फ कुछ एक उदाहरण हैं।
12.
छत्तीसगढ और ओड़ीशा के नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में बीएसएफ
निरंतर जारी नक्सली हिंसा देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा है। पिछले वर्ष की तुलना में 2010 में, नक्सली हिंसा की घटनाओं में कुछ कमी आई लेकिन नागरिकों की मृत्यु में वृध्दि हुई। 2009 में 2258 घटनाओं में 591 नागरिकों की तुलना में 2010 में 2212 घटनाओं में 718 नागरिक मारे गए। वर्ष 2010 के दौरान, नक्सलियों ने आर्थिक बुनियादी ढांचे पर भी 365 हमले किए।
नक्सली समस्या से निबटने के लिए सरकार ने विकास और समन्वित पुलिस कार्रवाही की दो-आयामी रणनीति को अपनाया। यह हर संभव तरीके से राज्य सरकारों की सहायता भी कर रही है। भारत सरकार नक्सल-विरोधी अभियानों में राज्यों की सहायता के लिए उन्हें केन्द्रीय अर्ध्द-सैनिक बल प्रदान कर चुकी है।
दिसम्बर 2009-जनवरी-2010 में छत्तीसगढ़ क़े नक्सल प्रभावित जिले कांकेर और अप्रैल, 2010 में ओड़ीशा के कोरापुट और मलकानगिरि जिलों में सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) को तैनात किया गया। समस्या के सावधानीपूर्वक मूल्याँकन तथा विश्लेषण और आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई के व्यापक अनुभव का लाभ लेते हुए, बीएसएफ ने सरकार की सुरक्षा और विकास नीति के अनुरूप एक युध्द और गैर-युध्द रणनीति अपनाई है।
तैनाती के शुरूआती चरणों में, बीएसएफ और नक्सलियों के बीच कड़े प्रतिरोध और हल्की झड़पें अक्सर होती थीं। नक्सलियों ने सुरक्षा बलों को हतोत्साहित और क्षेत्र में अपना आधिपत्य बनाए रखने के उद्देश्य से अधिकतम जानमाल के नुक्सान के लिए आईईडी का उपयोग किया। एक विस्तृत योजना और सावधानीपूर्वक किए गये कार्य निष्पादन की मदद से क्षेत्र पर प्रभावी प्रभुत्व हासिल कर लिया गया। सामूहिक क्षति से बचने के लिए, बीएसएफ ने सटीक खुफिया तंत्र विकसित करते हुए सुनिश्चित नक्सल-विरोधी अभियानों को अंजाम दिया। 2010 में यह 54 बिना विस्फोट हुई आईईडी का पता लगाने में सफल रही, 4 को निष्क्रिय किया और 229 नक्सलियों को गिरफ्तार किया एवं 182 हथियार बरामद किए। अब वहां ग्रामीण अपनी इच्छा से सहयोग और सूचना दे रहे हैं।
बीएसएफ की तैनाती के मामले में उनके ध्यान का एक अन्य क्षेत्र लोगों के बीच सुरक्षा की भावना को जगाना और विकास के लिए उनकी आकांक्षाओं को पूरा करना था। दूर-दराज और दुर्गम क्षेत्रों के लोगों के साथ बैठकों की एक श्रृंखला आयोजित की गई। लोगों को बीएसएफ की बैठकों में भाग लेने से मना करने के लिए दी गई नक्सलियों की धमकी से शुरूआती हिचक के बावजूद लोग सामने आए। लोगों ने सुरक्षा बलों के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, संपर्क, विकास और समाजिक जागरूकता जैसे कुछ मुद्दों की पहचान की जिन पर शीघ्र ध्यान दिए जाने की आवश्यकता थी।
बीएसएफ दूर-दराज के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में गरीबों तक पहुँचने के लिए कई नागरिक कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। इनमें चिकित्सा शिविर, खेल गतिविधियों को चलाना, स्कूली बच्चों के लिए किताबों और स्थानीय लोगों के लिए रेडियो ट्रांजिस्टरों, टीवी सेटों, कपड़े और कुछ आवश्यक वस्तुओं का वितरण शामिल है। तैनाती के बाद से, चिकित्सा शिविरों सहित, बीएसएफ छत्तीसगढ़ में करीब 60 और ओड़ीशा में करीब 70 नागरिक कार्यक्रम शिविर चला चुकी है। इन शिविरों में 6000 हजार से ज्यादा रोगियों का इलाज किया गया और दवाईयां प्रदान की गईं।
लोगों की सहायता से बीएसएफ द्वारा चलाई जा रही गतिविधियों में शामिल हैं- शिक्षा: नक्सलियों के डर के कारण, कुछ विद्यालयों ने कामकाज बंद कर दिया था। कुछ विद्यालयों में उपस्थिति घट गई थी। कुछ स्थानों पर उदाहरण के तौर पर कांकेर जिले के बड़ेझरकत्ता और प्रतापपुर में माध्यमिक विद्यालयों में अध्यापकों की अनुपस्थिति के कारण बीएसएफ के जवान महत्वपूर्ण विषयों को पढ़ाने के लिए गये। इसके बाद से उपस्थिति में वृध्दि हुई है। बीएसएफ ने लड़कों और लड़कियों के लिए कुछ अधूरे छात्रावासों के निर्माण को पूरा करने में मदद प्रदान की है ताकि दूर-दराज के क्षेत्रों के विद्यार्थी यहां रूककर अध्ययन कर सकें।
स्वास्थ्य: चिकित्सा सुविधाएं नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की समस्याओं में से एक है1। घटिया सफाई व्यवस्था, अशुध्द पानी और कीड़े-मकोड़ों की अधिकता बीमारियों का प्रमुख कारण रही है। संचार और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव के कारण, बहुत से लोग या तो घर पर ही बीमारी झेलते हैं अथवा बिना जानकारी के ही उनका निधन हो जाता है। बीएसएफ इकाइयों के साथ उपलब्ध चिकित्सा अधिकारी लोगों के लिए एक वरदान हैं। बीएसएफ ग्रामों में स्वास्थ्य और स्वच्छता की उपयोगिता के बारे में लोगों को शिक्षित करने के लिए नियमित रूप से चिकित्सा शिविर स्थापित करने की शुरूआत कर चुकी है। पुरूषों, महिलाओं और बच्चों को नि:शुल्क इलाज प्रदान किया जा रहा है। यहाँ तक कि बीएसएफ अधिकारियों ने स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों से मुलाकात करके उन्हें फिर से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके परिणामस्वरूप, कुछ चिकित्सा औषधालयों ने फिर से कार्य करना प्रारंभ कर दिया है। उदाहरण के तौर पर, छत्तीसगढ़ क़े ग्राम कोडपाखा के आयुर्वेदिक औषधालय ने पिछले कुछ वर्षौं से कार्य करना बंद कर दिया था। बीएसएफ ने औषधालय को चलाने में चिकित्सकों को आ रही समस्याओं के बारे में विचार-विमर्श किया और औषधालय को चलाने के लिए चिकित्सकों को हरसंभव सहायता देने का आश्वासन दिया। इसके परिणामस्वरूप, औषधालय को फिर से प्रारंभ कर दिया गया है और अब यह कार्य कर रहा है।
संपर्क: नक्सलियों ने सड़क संपर्क पर निशाना साधा था और इसके उपयोग को लोगों और सुरक्षा बलों के लिए मुश्किल बनाया। उन्होंने प्रशासन और पुलिस के मार्ग संचालन में बाधा पहुँचाने के लिए इनमें आईईडी को बिछा दिया था। इन क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवहन के संचालन को रोक दिया गया था। सड़के, पुल और पुलियों की हालत खस्ता थी। लेकिन इन क्षेत्रों में तैनाती के बाद से, बीएसएफ ने सड़कों पर यात्रा को सुरक्षित बनाने की दिशा में एक अभियान पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया है। बड़ी संख्या में आईईडी का पता लगाकर उन्हें निष्क्रिय किया गया है। बीएसएफ के क्षेत्र पर हुए अधिकार से उत्साहित होकर प्रशासन द्वारा कुछ पुलों और सड़कों की मरम्मत की गई और अन्य पर मरम्मत का कार्य जारी है। कुछ अन्य सड़कों के सर्वेक्षण का कार्य भी प्रारंभ हो चुका है। यातायात में भी वृध्दि हुई है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली: नक्सलियों के डर के कारण बहुत से स्थानों पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने अपना कामकाज रोक दिया था। बीएसएफ के अधिकारियों ने संबंधित जिलों के अधिकारियों, ग्राम प्रतिनिधियों और परिवहन प्रबंधकों से मुलाकात कर उन्हें स्थगित प्रणाली को फिर से प्रारंभ करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद से पीडीएस ने कार्य प्रारंभ कर दिया है। उदाहरण के तौर पर, कोडपाखा के ग्रामीणों ने बीएसएफ को जानकारी दी कि पिछले कुछ वर्षो से नक्सलियों के दबाब की वजह से पीडीएस राशन उनके गांव की बजाय दुर्गकोंडल केन्द्र से वितरित किया जा रहा था। कंपनी कमांडर ने इस मामले पर स्थानीय वितरक के साथ विचार-विमर्श किया और उसे कोडपाखा में राशन को उतारने में सभी संभव सहायता/सुरक्षा देने का विश्वास दिलाया। इसके परिणामस्वरूप, स्थानीय केन्द्र से वितरण के लिए मार्च, 2010 में पीडीएस रॉशन का पहला ट्रक कोडपाखा पहुँचा।
समाजिक गतिविधि और स्थानीय प्रशासन: ग्राम सशक्तिकरण और त्वरित न्याय प्राप्ति की दिशा में, बीएसएफ ने ग्राम पंचायतों और समुदाय भागीदारिता को प्रोत्साहित किया। अब ग्रामों में लोग प्रतिदिन के निर्णयों में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं और एक जीवंत ग्राम्य जीवन की फिर से बहाली हुई है। इस विकास को आगे भी प्रोत्साहित करने के लिए, बीएसएफ ने पंचायत भवनों और सामुदायिक केन्द्रों के निर्माण को सुविधा प्रदान की है। नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में, लोगों ने अपने मनपसंद त्यौहार मनाना और पवित्र उत्सवों के अवसर पर प्रार्थना करना बंद कर दिया था। बीएसएफ की मदद से, लोगों में कुछ त्योहारों को मनाने का साहस जगा है और करीब 15 वर्षो के लंबे अंतराल के बाद उन्होंने धार्मिक रस्मों-रिवाज निभाने की हिम्मत जुटाई है। उहाहरण के तौर पर, बहुत वर्षो के बाद वार्षिक दंतेश्वरी मेले का आयोजन किया गया। छत्तीसगढ़ में, प्रतापपुर और इसके आस-पास के इलाके के गांवों में दशहरा त्यौहार की पूर्व संध्या पर, ग्रामवासियों ने दंतेश्वरी मंदिर से एक शोभायात्रा निकाली। यह त्यौहार 15 वर्षो से ज्यादा के अंतराल के बाद मनाया गया। 6 वर्षो के बाद, अक्टूबर 2010 के तीसरे सप्ताह में ग्राम बानगाचर में रामलीला का आयोजन किया गया। लंबे समय तक बंद रहने के बाद, बीएसएफ के प्रयासों के कारण मार्च, 2010 में छत्तीसगढ़ में इराकगुट्टा बाजार फिर से खोला गया।
बीएसएफ द्वारा उठाए गये इन कल्याणकारी उपायों से छत्तीसगढ और ओड़ीशा में तैनात सुरक्षा बलों को लोगों का विश्वास जीतने और इन क्षेत्रों में उपस्थित नक्सलियों के खिलाफ अपनी लड़ाई को मजबूत करने में मदद मिली। (पीआईबी विशेष लेख)
* सीमा सुरक्षा बल से प्राप्त जानकारी के आधार पर
13.
चंद्रयान द्वारा चन्द्रमा पर पानी की खोज का नासा का पुष्टिकरण=दिलीप घोष
चन्द्रमा पर पानी की खोज का श्रेय हाल तक भारत के अंतरिक्ष यान-चन्द्रयान पर ले जाए गए नासा के एक ऐसे खनिज विज्ञानी यंत्र को दिया जाता है, जिसे मून मिनरलॉजी मैपर यानी एम-3 कहा जाता है । यह दावा किया गया था कि 14 नवम्बर, 2008 को इस यंत्र ने चन्द्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में पानी की खोज उस समय की थी, जब अंतरिक्ष यान पृथ्वी के प्राकृतिक उपग्रह का 100 किलोमीटर की गोलाकार परिधि में चक्कर लगा रहा था । एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में इस गलती को अमेरिका की खगोलशास्त्रीय संस्था–अमेरिकन ऐस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ने 12 फरवरी, 2011 को दुरूस्त कर दिया है । सोसायटी के अनुसार नासा के हब्बल स्पेस टेलिस्कोप (हब्बल अंतरिक्ष दूरबीन एचएसटी) ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि चन्द्रमा पर पानी की खोज चन्द्रयान पर ले जाए गए भारत निर्मित यंत्र मून इम्पैक्ट प्रोब (एमआईपी) ने की थी । बॉक्स के आकार के 34 किलोभार के एमआईपी में चन्द्रा ऐल्टिट्यूडनल कम्पोजीशन एक्सप्लोरर को ले जाया गया था जिसमें तीन उपकरण वीडियो इमेजिंग उपकरण, रडार आल्टीमीटर और एक मास स्पेक्ट्रोमीटर लगे हुए थे । वीडियो इमेजिंग उपकरण को एमआईपी के चन्द्रमा के निकट पहुंचते ही उसकी सतह का चित्र लेने के लिये ले जाया गया था जबकि रडार आल्टीमीटर का उपयोग चन्द्रमा की सतह पर प्रोब के उतरने की दर को मापने के लिये किया जाना था । मास स्पेक्ट्रोमीटर चन्द्रमा के अत्यधिक झीने वातावरण के अध्ययन के लिये रखा गया था । चक्कर लगाते हुए अंतरिक्षयान से अलग किये जाने के बाद एमआईपी को चन्द्रमा की सतह पर पहुंचने में 25 मिनट लगे । चन्द्रमा की सतह पर पक्के से उतरने से पूर्व की उस अवधि में एमआईपी ने सभी सूचनायें चन्द्रयान को रेडियो तरंगों के माध्यम से भेज दी थी , जिसे उसने अपनी ऑन बोर्ड मेमोरी में तत्काल रिकार्ड कर लिया था ताकि इन सूचनाओं को बाद में आवश्यकतानुसार पढ़ा जा सके । एमआईपी द्वारा चन्द्रयान को संदेश भेजे जाने के साथ ही, चन्द्रमा के अध्ययन का भारत का प्रथम प्रयास सफलतापूर्वक पूरा हो गया था ।
नासा ने जैसे ही एमआईपी द्वारा चन्द्रमा पर पानी की खोज की पुष्टि की, इसरो के साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, जहां चांस का निर्माण हुआ था, खुशी की लहर दौड़ गई। चांस परियोजना के प्रबंधक श्री सैयद मकबूल अहमद ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह पहली बार है कि पश्चिम के वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा पर पानी की खोज संबंधित भारत के प्रकाशित शोधकार्य को मान्यता प्रदान की है। चांस परियोजना में काम करने वाले वैज्ञानिक तीर्थ प्रतिमदास ने विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र की आंतरिक पत्रिका वॉएज में लिखा था, एमआईपी में लगे उपकरणों से 14 नवम्बर, 2008 को दिन के वातावरण में चन्द्रमा की सतह पर कुछ परीक्षण किया गया जो सफल रहा । उनके अनुसार आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि चन्द्रमा पर पानी की मात्रा अच्छी खासी है । परन्तु चन्द्रमा पर पानी की खोज का श्रेय केवल एमआईपी को नहीं जाता । नासा के दो और परीक्षणों में भी पानी का पता चला है । 1999 में प्रक्षेपित कैसिनी अंतरिक्ष यान पर भेजे गए विजुअल एंड इन्फ्रारेड मैपिंग स्पेक्अ्रोमीटर ने भी चन्द्रमा की सतह पर पानी के अणुओं की खोज की थी । पिछले वर्ष चन्द्रमा के पास से गुजर रहे इपॉक्सी अंतरिक्ष यान पर लगे हाई रिजोल्यूशन इन्फ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर ने भी पानी का पता लगाया था, साथ ही चन्द्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में हाइड्रॉक्सेल अणु भी पाए गए थे । इन खोजों के निष्कर्ष अभी हाल तक अप्रकाशित ही रहे थे ।
चन्द्रमा की सतह पर पानी का पाया जाना और वह भी पूर्व के अनुमान से अधिक मात्रा में निश्चित ही एक बड़ी बात है । परन्तु चन्द्रमा पर सही सही कितना पानी है ? उन पर स्थित अमेरिका के भूगर्भीय सर्वेक्षण के डा0 रॉजर क्लार्क ने इसका अनुमान लगाया है । उन्होंने बताया कि यदि चन्द्रमा के सतह की मिट्टी की ऊपरी परत का एक टन हिस्सा खोदा जाए तो केवल 32 औंस पानी मिलेगा । मून मिनरलॉजी मैपर एम-3 परियोजना के प्रधान जांचकर्ता डा0 कार्ल पीटर्स ने सामान्य शब्दों में कहा कि जब हम चन्द्रमा पर पानी की बात करते हैं तो झीलों, समुद्रों और तालाबों की बात नहीं करते । चन्द्रमा पर पानी का अर्थ होता है पानी और हाइड्रोआक्सिल के अणु जो चन्द्रमा की सतह पर चट्टानों और धूल को प्रभावित करते हैं । परन्तु नासा के एक अन्य वैज्ञानिक पॉल स्पूडिस का कहना है कि चंद्रयान के राडार से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि चन्द्रमा के उत्तरी ध्रुव के पास छायादार गड्ढे में जमी हुई बर्फ में पर्याप्त पानी है, जो कि कम से कम 60 करोड़ मीट्रिक टन तक हो सकता है । उन्होंने कहा कि चन्द्रयान के मून मिनरलॉजी मैपर उपकरण ने चन्द्रमा पर एक पतली परन्तु व्यापक पानी की चादर जैसी परत की उपस्थिति का पता लगाया है, जोकि हाइड्रॉक्सिल के रूप में है ।
यहां पर स्मरण योग्य है कि चन्द्रयान का सकल प्रक्षेपण 22 अक्तूबर, 2008 को इसरो के पीएसएलवी-सी-11 राकेट से किया गया था । श्री हरिकोटा के सतीशधवन अंतरिक्ष केन्द्र से पृथ्वी की अंडाकार कक्षा से यह अंतरिक्षयान 8 नवम्बर, 2008 को अपने लक्ष्य अर्थात चन्द्रमा की कक्षा में प्रविष्ठ हो गया था । तब इसकी चक्रीय ऊँचाई को धीरे-धीरे कम कर चन्द्रमा की सतह के पास 100 कि.मी. की लक्षित दूरी पर ले आया गया । प्रक्षेपण के बाद से ही चन्द्रयान की स्थिति पर बंगलूरू स्थित इसरो अंतरिक्षयान नियंत्रण केन्द्र आईएसटीआरएसी से नज़र रखी जा रही थी । अंतरिक्ष यान का जीवन 2 वर्ष का था, परन्तु प्रक्षेपण के दिन से करीब 8 महीने के अंदर ही , 29 अगस्त , 2009 को इसका रेडियो संपर्क टूट गया । इसरो के लिये यह एक विफलता मानी जा सकती है, परन्तु यह कोई बहुत बड़ी हानि थी, ऐसा नहीं माना जाना चाहिए । वास्तव में, अंतरिक्ष के अनुसंधान में लगी अन्य एजेंसियों की तुलना में, इसरो का रिकार्ड काफी बेहतर है। यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि चन्द्रयान ने अपने आठ माह के जीवन में ही अपना 95 प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त कर लिया था । इसने करीब 3400 चक्कर लगाए, जिसके दौरान उसने चन्द्रमा के 70 हजार चित्र भेजे ।
चन्द्रयान ने जो कार्य किये, उनमें चंद्रमा की सतह पर अनेकों सुरंगों की खेाज भी शामिल है । एक विज्ञान लेखक का तर्क है कि यह सुरंगें उस समय काम में आएंगी , जब मनुष्य इस ईश्वरीय निकाय पर अपना घर बनाएगा । ये उसे चन्द्रमा की सतह से निकलने वाली ब्रह्मांड की अन्य हानिकारक किरणों से शरण प्रदान कर सकेंगी । इसके अतिरिक्त चन्द्रयान द्वारा संकलित आंकड़े उस समय काम में आएंगे जब इसरो चंद्रयान का दूसरा मिशन छोड़ेगा । इसरो के पूर्व अध्यक्ष डा0 जी माधवन नायर का कहना है कि चन्द्रयान द्वितीय 2013 में छोड़ा जाएगा जिसमें एक मोटर युक्त रॉवर और चन्द्रमा की कक्षा में घूमने वाला यान लगा होगा । करीब 30 किलेाग्राम भार वाला मोटरयुक्त रॉवर सौर ऊर्जा से शक्ति प्राप्त करेगा और उसका जीवन 30 दिनों का होगा । रॉवर का काम होगा रासायनिक परीक्षण हेतु चट्टानों और मिट्टी के नमूने इकट्ठा करना और चंद्रयान द्वितीय को सूचनायें भेजना जिन्हें विश्लेषण के लिए पृथ्वी के नियंत्रण केन्द्र को भेजा जाएगा । परन्तु भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि वे 3 लाख 40 हजार किलोमीटर दूर चंद्रमा पर अंतरिक्ष यान भेजने में कामयाब रहे । यह सफलता भविष्य में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष अभियानों के लिये उन्हें पर्याप्त शक्ति प्रदान करेगी ।
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अंतराष्ट्रीय कंटेनर पोतांतरण टर्मिनल वल्लारपडमः प्रमुख वैश्विक टर्मिनल=सुधा एस. नंबूदिरी*
भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 14 फरवरी को केरल के वल्लारपडम, कोचीन अपतट पर सबसे बडे और भारत के पहले प्रमुख वैश्विक टर्मिनल, अंतराष्ट्रीय कंटेनर पोतांतरण टर्मिनल (आईसीटीटी) को राष्ट्र को समर्पित किया। टर्मिनल की आधारशिला प्रधानमंत्री ने छह वर्ष पूर्व जनवरी 2005 में रखी थी। उम्मीद है कि सभी बुनियादी सुविधाओं सहित 3000 करोड़ रुपए से भी अधिक लागत से बने इस टर्मिनल के द्वारा भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में माल भाड़े की क़ीमत में काफी हद तक कमी आएगी ।
आईसीटीटी वल्लारपडम की शुरूआत से पूर्व वेम्बानाड झील के किनारे शांत वातावरण से परिपूर्ण एक छोटा सा द्वीप प्रमुख कैथोलिक तीर्थ केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था। पुर्तगाली मिशनरियों ने 1524 में ऐतिहासिक अवर लेडी ऑफ रेनसम चर्च का निर्माण किया। कहा जाता है कि मिशनरियों को लेडी ऑफ रेनसम का एक चित्र मिला और इसके बाद उन्हें स्वपन में चर्च की स्थापना करने को कहा गया। कई चमत्कारों का संबंध इस चर्च से जोड़ा गया है। माना जाता है कि इसकी वजह से समुद्री दुर्घटनाओं से लोगों की रक्षा होती है। यह चर्च वीरापोली सूबे का एक हिस्सा है और कैथोलिक इसे बेहद पवित्र मानते हैं। 17 वीं सदी में बाढ़ की वजह से इसकी मूल इमारत नष्ट हो गई थी जिसे बाद में पुनःनिर्मित किया गया। कहा जाता है कि वर्तमान इमारत का निर्माण 1676 में हुआ । पोतांतरण व्यापार में अपनी वैश्विक स्थिति के कारण यह द्वीप आज सही मायनों में प्रसिद्ध होने जा रहा है। उच्च तकनीक कार्गो हैंडलिंग उपकरणों के साथ विशेष आर्थिक ज़ोन में संचालित होने वाला देश का यह पहला आधुनिक टर्मिनल होगा। पूर्व-पश्चिम की मुख्य वैश्विक नौवहन रेखा पर रणनितिक रूप से स्थित और 14.5 मीटर गहरे बहाव वाले स्थान के साथ कोचीन का दक्षिण भारत के प्रमुख प्रवेश द्वार के रूप में विकसित होना निश्चित है। आज देश में 45 प्रतिशत से भी अधिक जहाज़ी माल कोलम्बो दुबई और सिंगापुर के द्वारा पोतांतरित किया जाता है। वल्लारपडम नौवहन रेखाओं के ज़रिए नाविकों को सीधे तौर पर सुविधाएं उपलब्ध कराकर इस स्थिति को बदलने का भरोसा व्यक्त करता है। इससे जहाज़ियों को प्रति टी.ई.यू. दस हज़ार रूपए बचाने में मदद मिलेगी। यह टर्मिनल आठ हज़ार टी.ई.यू. या इससे बडे आकार वाले जहाज़ों को समायोजित कर सकेगा। आईसीटीटी न सिर्फ कोचीन बंदरगाह पर अधिक माल लाने में मददगार होगा बल्कि इससे संबंधित गतिविधियों जैसे मालगोदाम ढुलाई और कोचीन में तथा इसके इर्द-गिर्द माल अग्रेषण की मांग को बढ़ावा भी देगा।
आईसीटीटी को तीन चरणों में पूरा किया जाएगा। यह टर्मिनल प्रथम चरण में 600 मीटर लंबे जहाज़ी घाट और 15 मीटर से अधिक की जलीय गहराई के साथ सालाना एक मिलियन बीस फीट के जहाज़ों (टी.ई.यू.) को संभालने में सक्षम होगा। माल रखने के क्षेत्र और जहाज़ों के पाल समेटने के 450 प्लग प्वांइट के अतिरिक्त वर्तमान में जहाज़ी घाटों के चार क्रेन और रबड़ टायर के 11 ढ़ांचागत क्रेन है। दूसरे चरण में इस क्षमता को 1.5 मिलियन टी.ई.यू. तक बढ़ाया जाएगा, एक बार पूरी तरह अधिकृत हो जाने के बाद इसे तीन मिलियन टी.ई.यू. तक बढ़ाया जाएगा।
2005 में दुबई सरकार के स्वामित्व वाले अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल संचालकों, डीपी वर्ल्ड को बीओटी आधार पर टर्मिनल दिया गया था लेकिन इलाके की समायोजकता बढ़ाने के लिए सड़क रेल और अन्य आधारभूत सुविधाओं को विकसित करने का दायित्व कोचीन बंदरगाह का था। तलमार्जन की लागत सहित, 1,700 करोड़ रूपए से अधिक की राशि सीपीटी द्वारा व्यय की गई और डीपी वर्ल्ड ने इस परियोजना में 1,600 करोड़ रूपए से अधिक का निवेश किया। कोचीन बंदरगाह न्यास के साथ डीपी वर्ल्ड राजस्व का 33.3 प्रतिशत हिस्सा बांटेगी। डीपी वर्ल्ड जो कि पहले से ही देश में पांच टर्मिनलों का संचालन कर रहा है, उसके कारोबार को बढ़ावा देने में वल्लारपडम की अहम भूमिका होगी। इससे इस समूह का अखिल भारतीय व्यापार 42 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत तक हो जाएगा। यह पश्चिम बंगाल में कुल्पी पर एक और टर्मिनल का विकास कर रहा है।
कोचीन में वल्लारपडम रेलवे लिंक भारत का सबसे लंबा रेल पुल है। 4.62 कि.मी. का यह रेल पुल, आईसीटीटी को कोचीन शहर के एक उपनगर इडापल्ली से जोड़ने वाले 8.86 कि.मी. लंबे रेल गलियारे का हिस्सा है। बिहार में सोन नदी पर बना, 3.065 कि.मी. लंबाई वाला नेहरू सेतु जो कि देश का दूसरा सबसे लंबा पुल है, को यह पुल पीछे छोड़ देता है। 4.62 कि.मी. लंबाई वाले देश के इस सबसे लंबे पुल का निर्माण दो वर्ष की अवधि में किया गया जो कि प्रति माह 190 मीटर और प्रति दिन 6.3 मीटर पुल निर्माण के बराबर है। यह एक आश्चर्यजनक आंकड़ा है, इस तथ्य के मद्देनज़र कि पुल का 80 प्रतिशत निर्माण अप्रवाही जल में किया गया है। 133 स्थानों पर पुल का निर्माण स्तंभों पर किया गया है। 20 मीटर के 33 मेहराबों और 40 मीटर के 99 मेहराबों सहित पुल में कुल 132 मेहराब हैं। 220 टन वजनी कुल 231 शहतीरों को वल्लारपडम में ढाला गया जिसे मोटरीकृत ट्रॉलियों के जरिए नियत स्थल तक पहुंचाया गया और चीन से आयातित पूर्णतः स्वतः संचालित मशीन के द्वारा सही स्थिति में लगाया गया। यह इसके महत्व को दर्शाता है क्योंकि पुल का अधिकांश भाग अप्रवाही जल पर है। पुल के ऊपर पटरी बिछाने के लिए नवीनतम ढांचों वाले कंक्रीट आधुनिकतम रेल कसावों और ठोस रेलों का उपयोग किया जाएगा। पुल के निर्माण में 18000 टन इस्पात, 500000 टन सीमेंट का प्रयोग हुआ और भविष्य में ट्रैक निर्माण को ध्यान रखने सहित पुल के निर्माण में आधारशिला के लिए कुल 64000 स्तंभों का इस्तेमाल हुआ। रेल विकास निगम की निगरानी में प्रतिदिन लगभग 700 कामगरों और 50 इंजीनियरों के सामूहिक प्रयास ने इसे हकीकत का रूप दिया।
आईसीटीटी के संचालकों को अधिकृत करने में रेल लिंक परियोजना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि टर्मिनल से माल लाने ले-जाने के लिए इसका प्रयोग अनन्य रूप से किया जाएगा। इस मार्ग पर 31 मार्च, 2010 को सफल परीक्षण किया गया था। रेलवे लाइन और इससे संबंधित अन्य बुनियादी निर्माणों पर 350 करोड़ रूपयों की लागत आई जिसका पूर्ण वहन केंद्र सरकार ने शिपिंग मंत्रालय के माध्यम से किया। रेलवे लाइन परियोजना के लिए भारतीय रेलवे का सार्वजनिक उपक्रम रेल विकास निगम (आरवीएनएल), आसामी था।
वल्लारपडम द्वीप जहाँ अंतराष्ट्रीय कंटेनर पोतांतरण टर्मिनल स्थित है को खाड़ी के साथ पुल निर्माण के जरिए मुख्य भूमि से जोड़ा गया है। इसके लिए वाइपीन द्वीप को वल्लारपडम के साथ, वल्लारपडम को बोलघाटी द्वीप के साथ और बोलघाटी द्वीप को एर्नाकुलम शहर के साथ, पुल निर्माण के जरिए, गोश्री द्वीप विकास प्राधिकरण ने जोड़ा है। वल्लारपडम में नए आईसीटीटी के क्रियान्वयन के साथ ही इस मार्ग पर वाहनों की तीव्रता काफी बढ़ जाएगी परिणामतः यातायात लगातार बाधित होगा इसलिए एनएच-47 और एनएच -17 के साथ वल्लारपडम को जोड़ने के लिए इस परियोजना के गलियारे के निर्माण का विकल्प प्रस्तावित किया गया है। वल्लारपडम टर्मिनल पर कलामसेरी से वल्लारपडम तक चार लेन की सड़क और 17.2 कि.मी. की लंबाई के पुल के साथ नई एनएच समायोजकता का निष्पादन एनएचएआई के द्वारा किया जा रहा है। अनुमानित लागत 872 करोड़ रुपए है। इस समायोजकता के अंतर्गत विविध द्वीपों को जोड़ने के लिए एनएच-47 पर एक फ्लाई-ओवर, 11 मुख्य पुल और अप्रवाही जल में एक छोटे पुल का निर्माण शामिल है। कोचीन पत्तन न्यास को अप्रवाही जल में 6.70 कि.मी. जमीन के निकर्षण और तटबंध बनाने का काम सौंपा गया था जिसे उसने अगस्त 2009 में पूरा कर लिया था। दो लेनों की समायोजकता का काम अक्टूबर 2010 में पूरा कर लिया गया था और अन्य दो लेनों का कार्य प्रगति पर है। परियोजना पूरा होने की अंतिम तारीख 31 दिसंबर, 2013 के रुप में लक्षित की गई है।
कोचीन के इतिहास में आईसीटीटी ने एक नए युग की शुरुआत की है और कोचीन तथा समस्त रूप से केरल में यह कई अन्य कामयाबियां लाएगा। 1600 करोड़ रुपए के एलएनजी टर्मिनल, 1,510 करोड पत्तन आधारित विशेष आर्थिक ज़ोन, 315 करोड़ रुपए का अंतर्राष्ट्रीय जहाज़ मरम्मत परिसर, कोच्चि रिफाइनरी लिमिटेड के लिए 720 करोड़ रुपए का एकल तरेरी नौबंध, भारतीय गैस प्राधिकरण के लिए 7000 करोड़ रुपए का पेट्रो रसायन परिसर, कार्गो टर्मिनल पर्यटन जहाज़ टर्मिनल और एक अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह सहित अनेक महत्वपूर्ण श्रृंखलाओं की शुरुआत इस परियोजना के जरिए हुई है।
डॉ. एन रामचंद्रन के लिए यह सपने का सच होना है। 2005 में जब वो अध्यक्ष के तौर पर कोचीन बंदरगाह से जुड़े उस समय वल्लारपडम कंटेनर परियोजना काग़ज़ों में ही थी। वो स्वीकार करते हैं कि मंज़ूरियां लेने, स्वीकृतियां प्राप्त करने, धन जुटाने, भूमि अधिग्रहण वगैरह में परेशानियां पेश आई लेकिन कुल मिलाकर सारा अनुभव अच्छा रहा। उनके योगदान को स्वीकार करते हुए उनका कार्यकाल बढ़ाया गया ताकि वो इस अवसर के गवाह बन सकें। छह वर्षो के बाद यह टर्मिनल आज एक सच्चाई है। (पी.आई.बी. फीचर)
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26/11 के बाद हमारा तटवर्तीय क्षेत्रों की सुरक्षा तटवर्ती सुरक्षा=रविन्दर सिंह
नौ तटवर्ती राज्यों और चार केन्द्रशासित प्रदेशों से लगी हुई 7516 किलोमीटर लम्बी हमारी तटीय सीमा सुरक्षा संबंधी गंभीर चुनौतियां पेश करती है । मुंबई के 26/11 के आतंकी हमलों के बाद देश के समूची तटीय सुरक्षा परिदृश्य पर सरकार द्वारा अनेक स्तरों पर समीक्षा की गई है । तटीय सुरक्षा के खतरों के विरूद्ध मंत्रिमंडल सचिव की अध्यक्षता में राष्ट्रीय समुद्री और तटीय सुरक्षा समिति (एनसीएसएमसीएस) का गठन किया गया है । तटीय सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर समिति में विस्तृत चर्चा की गई है । सभी नौ तटवर्ती राज्य और चार केन्द्रशासित प्रदेश इस समिति की बैठकों में नियमित रूप से भाग लेते हैं ।
देश की तटीय सुरक्षा को और अधिक सुदृढ़ बनाने के लिए विभिन्न मंत्रालयों द्वारा अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं , जिन पर क्रियान्वयन किया जा रहा है । देश की तटवर्ती सीमा की सुरक्षा के लिये तटवर्ती राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों की पुलिस, राज्यों के प्रशासन, भारतीय नौसेना, गृह मंत्रालय और अन्य केन्द्रीय मंत्रालय पूरे सामंजस्य के साथ काम कर रहे हैं । इन सबके बावजूद , भारत की विशाल समुद्री सीमा की रक्षा करना एक गुरूतर दायित्व है।
तटीय सुरक्षा येाजना (प्रथमचरण)
राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली में सुधार के लिये गठित मंत्रि समूह की सिफारिशों पर गठित तटीय सुरक्षा येाजना का अनुमोदन सुरक्षा संबंधी मंत्रिमंडल समिति ने जनवरी 2005 में किया था, जिस पर वर्ष 2005-06 से शुरू होकर पांच वर्षों में अमल किया जाना था । योजना में तटवर्ती 9 राज्यों और 4 केन्द्र शासित प्रदेशों को 73 तटवर्ती पुलिस थाने, 97 जांच चौकियां (चेक पोस्ट), 58 सीमा चौकियां (आउटपोस्ट) और 30 बैरकों की स्थापना के लिये सहायता दी जाती है। इन सभी में कुल 204 नौकायें, 153 जीपें और 312 मोटर साइकिलें मुहैया करायी गई हैं । योजना के अंतर्गत जनशक्ति का प्रावधान राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों द्वारा किया जाता है । प्रारंभ में येाजना के अंतर्गत अनावर्ती व्यय के लिये चार अरब रूपये और नौकाओं की मरम्मत , साधारण एवं ईंधन तथा समुद्री पुलिस कर्मियों के प्रशिक्षण पर आवर्ती व्यय के लिये 1 अरब 51 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया था । योजना को फिलहाल एक वर्ष यानी 31 मार्च, 2011 तक बढ़ा दिया गया है और अनावर्ती व्यय के लिये 95 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है ।
अनुमोदित 73 तटवर्ती पुलिस थानों में से 71 में काम शुरू हो चुका है । इनमें से 48 अपने नए भवनों से काम कर रहे हैं । इसके अलावा 75 जांच चौकियों , 54 सीमा चौकियों और 22 बैरकों का निर्माण भी पूरा हो चुका है । अनुमोदित 204 नौकाओं में से 195 नौकायें 31 दिसम्बर, 2010 तक अतटवर्ती राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को दी जा चुकी हैं । गोवा के लिये 10 रिजिड ‘इन्फ्लेटे बल बोट्स’ (सुदृढ़ हवा से फूलने वाली नौकायें) खरीदी जा चुकी हैं । राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों द्वारा सभी वाहन (153 जीपें और 312 मोटर साइकिलें ) खरीदे जा चुके हैं । तटरक्षक बल ने अब तक करीब 2000 लोगों को प्रशिक्षण दिया है ।
नौकाओं का पंजीकरण
भारतीय जल क्षेत्र में सभी प्रकार की नौकाओं मछली पकड़ने वाली या मछली नहीं पकड़ने वाली को एक समरूप प्रणाली के तहत पंजीकरण कराना होता है । जहाजरानी मंत्रालय ने जून 2009 में दो अधिसूचनायें जारी की, जिनमें से एक व्यापारिक नौवहन (मछली पकड़ने वाली नौकाओं का पंजीकरण) नियमों में संशोधन से संबंधित था, जबकि दूसरा पंजीयकों की सूची की अधिसूचना से संबंधित था । राज्य और केन्द्रशासित प्रदेश इस पर अनुसरण कर रहे हैं । राष्ट्रीय सूचना केन्द्र (एनआईसी) ने देश में एक समरूप ऑनलाइन पंजीकरण प्रणाली का विकास किया है । कार्यक्रम पर अमल के लिये एनआईसी को 1 करोड़ 20 लाख रूपये और तटवर्ती राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को 5 करोड़ 81 लाख 86 हजार रूपये जारी किये जा चुके हैं । इससे संबंधित प्रशिक्षण और प्रशिक्षण की शुरूआत हो चुकी है तथा ऑनलाइन पंजीकरण भी प्रारंभ हो गया है ।
मछुआरों को पहचान पत्र जारी करना
तटवर्ती मछुआरों को बायोमीट्रिक पहचान पत्र जारी करने के लिये 72 करोड़ रूपये की कुल लागत से केन्द्रीय क्षेत्र की एक योजना शुरू की गई है । इस परियोजना के लिए आर्थिक सहयोग भारतीय महापंजीयक से प्राप्त हो रहा है। भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड की अगुवाई में तीन कंपनियों के एक समूह को आंकड़ों के अंकीकरण कार्ड के उत्पादन और उसे जारी करने का काम सौंपा गया है । बायोमीट्रिक पहचान पत्र जारी करने के लिये जिन 15,59,640 मछुआरों की पहचान की गई है, उनमें से 8,29,254 (53.17 प्रतिशत) के बारे में आंकड़े इकट्ठा किये जा चुके हैं और 3,76,828 (45.44 प्रतिशत)मछुआरों के आंकड़ों का अंकीकरण किया जा चुका है ।
आरजीआई, जनसंख्या 2011 के पूर्व तटीय राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने की अपनी परियोजना के एक अंग के तौर पर तटवर्ती गांवों की जनसंख्या को बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने की प्रक्रिया में है । नए कोर्ड एएचडी (पशुपालन विभाग) और मत्स्यपालन विभाग द्वारा जारी किये जाएंगे । पहले चरण में 3331 तटवर्ती गांवों का चयन इस कार्य के लिये किया गया है ।
पहचान पत्रों का वितरण दिसम्बर 2010 में शुरू हो चुका है । अब तक 1 करोड़ 20 लाख लोगों के आंकड़े इकट्ठा किये जा चुके हैं, जबकि 69 लाख लोगों के बायोमीट्रिक विवरण तैयार किये जा चुके हैं । गुजरात, गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु , ओडीशा , दमन व दीव, लक्षदीप और पुड्डुचेरी के तटवर्ती गांवों में आमतौर पर रहने वालों का स्थानीय रजिस्टर एलआरयूआर की छपाई पूरी हो चुकी है ।
बंदरगाह सुरक्षा
ऐसे बंदरगाह जो ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं माने जाते उनकी सुरक्षा, हमेशा से ही चिंता का विषय रही है । देश में 12 प्रमुख और करीब 200 कम महत्व के छोटे बंदरगाह हैं । प्रमुख बंदरगाहों की सुरक्षा सीआईएसएफ के हाथों में है, जबकि छोटे और कम महत्व के बंदरगाहों की सुरक्षा राज्यों के समुद्री बोर्डों/राज्य सरकारों के हाथों में होती है । बड़े बंदरगाह अंतराष्ट्रीय जहाजों के अनुकूल सुरक्षा प्रबंधों और सुविधाओं से लैस हैं । इन बंदरगाहों का सुरक्षा अंकेक्षण हर दो वर्ष में किया जाता है, यानी सुरक्षा संबंधी प्रबंधों की समीक्षा की जाती है, परन्तु कम महत्व के बंदरगाहों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है ।
12 प्रमुख बंदरगाहों के अतिरिक्त देश के 53 छोटे/कम महत्वपूर्ण बंदरगाह और 5 शिपयार्ड (पोत निर्माण संयंत्र) भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के जहाजों के अनुकूल सुरक्षा और सुविधाओं से संपन्न हैं । इन बंदरगाहों के सुरक्षा प्रबंधों और सुविधाओं की वैश्विक अनुकूलता की स्थिति का पुनराकलन इंडियन रजिस्टर ऑफ शिपिंग द्वारा किया गया है । सीमा शुल्क विभाग, जहाजरानी तथा राज्यों के समुद्री बोर्डों को साथ लेकर ऊपर वर्णित 65 प्रमुख और गैर प्रमुख बंदरगाहों के अतिरिक्त अन्य कम महत्वपूर्ण बंदरगाहों में भी अंतराष्ट्रीय स्तर के जहाजों के अनुकूल सुरक्षा और सुविधाओं को जुटाने के लिये आवश्यक कार्रवाई कर रहा है ।ऑपरेशन स्वान
गुजरात और महाराष्ट्र के तटवर्ती क्षेत्रों की पैट्रोलिंग की संयुक्त व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये चलाई जा रही ऑपरेशन स्वान येाजना के तहत तटरक्षक बाल को 15 इंटरसेप्टर (पीछा करने वाली) नौकाओं की खरीद और महाराष्ट्र के धानु तथा मुरूड जंजीरा और गुजरात के वेरावल में 3 तटरक्षक केन्द्र स्थापित करने के लिये 3 अरब 42 करोड़ 56 लाख रूपये की सहायता दी जा रही हे । योजना के अंतर्गत जमीन और नौकाओं की लागत के तौर पर केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा अब तक 61 करोड़ 11 लाख रूपये जारी किये जा चुके हैं ।
निर्णयों का क्रियान्वयन
समुद्री और तटवर्ती सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए अग्र लिखित निर्णयों पर क्रियान्वयन हो चुका है – तटवर्ती क्षेत्रों में गश्त और निगरानी में विस्तार, तटवर्ती और तट से दूर सुरक्षा सहित समग्र समुद्री सुरक्षा के लिए भारतीय नौसेना को उत्तरदायित्व सौंपना, तटवर्ती पुलिस की गश्त वाले क्षेत्रों सहित भूभागीय जल क्षेत्र की सुरक्षा के लिये , तटरक्षक बल को अधिकृत करना, महानिदेशक (डीजी), तटरक्षक बल को कमांडर मनोनीत करना, तटवर्ती सुरक्षा से संबंधित सभी मामलों में केन्द्रीय और राज्यों की एजेंसियों के बीच समन्वयन का पूरा उत्तरदायित्व सौंपना, तटवर्ती कमांड को सौंपना, मुंबई , विशाखापटनम कोच्चि और पोर्ट ब्लेयर में चार संयुक्त कार्रवाई केन्द्रों की स्थापना और तटरक्षक बल द्वारा सभी तटवर्ती राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों में मानक प्रचालन प्रक्रियाओं को अंतिम रूप देना और उनको जारी करना ।
सुरक्षा योजना (द्वितीय चरण ) अंतिम रूप से तैयार
तटवर्ती राज्यों /केन्द्र शासित प्रदेशों ने तटरक्षक बल के परामर्श से खामियों और खतरों के आधार पर तैयार तटवर्ती सुरक्षा योजना (द्वितीय चरण) के प्रस्ताव को सरकार ने 1 अप्रैल, 2011 से पांच वर्ष को मंजूरी दे दी है । आशा है इस योजना से तटवर्ती राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों को तटीय सुरक्षा व्यवस्था को उन्नत बनाया जा सकेगा । इस योजना पर परिव्यय के लिये जो वित्तीय व्यवस्था की गई है, उसमें से 11 अरब 54 करोड़ 91 लाख 20 हजार रूपये गैर-आवर्ती व्यय के लिये और 4 अरब 25 करोड़ रूपये आवर्ती व्यय के लिए रखे गए हैं । प्रस्ताव की प्रमुख विशेषताओं में से 180 नौकाओं, 60 जेट्टी , 35 हवा से फूलने वाली मजबूत नौकाओं (लक्षदीप के लिये 12 और 23 अंडमान निकोबार के लिए),10 बड़ी नौकायें (केवल अंडमान निकोबार के लिए), 131 चार पहिया वाहन वाहन और 242 मोटर साइकिलों की व्यवस्था के साथ 131 तटीय पुलिस थानों की स्थापना शामिल है । निगरानी उपकरण, अंधेरी रात में देखने के लिए उपकरण( नाइट विजन उपकरण), कम्प्यूटर और फर्नीचर तथा पीओएल पेट्रोल और लुक्रीकेन्टस 180 नौकाओं की आपूर्ति के बाद एक वर्ष के लिए) प्रति पुलिस थानों के हिसाब से 15 लाख रूपये का प्रावधान किया गया है। नौकाओं के संधारण के लिए वार्षिक संविदा और समुद्री पुलिस कर्मियों के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की गई है ।
नई तटीय सुरक्षा योजना (द्वितीय चरण ) में 60 जेट्टियों के साथ-साथ मौजूदा जेट्टियों के उन्नयन का विशेष प्रावधान किया गया है ।
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पसंदीदा निवेश स्थान के रूप में भारत का उदय
आर्थिक सलाहकार कार्यालय=आर. पी. सिंह*
विकासशील देशों में निवेश हेतु संसाधनों की जरूरत सामान्यत: घरेलू उपलब्ध संसाधनों से ज्यादा होती है। भारत में ऐतिहासिक तौर पर सकल घरेलू निवेश (जीडीआई) सकल घरेलू बचत (जीडीएस) की तुलना में कम रहा है। यहां प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की महज 1.2 से 1.3 फीसदी राशि ही निवेशित हो पाती है। ऐसे में बड़े निवेश और उत्पादन क्षमता में तेज वृद्धि के लिए ये देश घरेलू बचत के पूरक के रूप में विदेशी पूंजी के आगमन को प्रोत्साहित करते हैं। इस हेतु प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को सबसे पसंदीदा रास्ता समझा जाता है, क्योंकि यह अपने साथ प्रबंधन के नए तरीके और नई तकनीकें लेकर आता है। उत्पादन क्षमता बढ़ाने के अलावा यह देश की निर्यात क्षमता या आय में भी वृद्धि करता है।
1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण ने देश की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति व्यवस्था को काफी उदार बना दिया है। पिछले कुछ सालों में भारत विदेशी निवेश के पसंदीदा स्थान के रूप में उभरा है। कार्यकुशल माहौल और पारदर्शी खुली नीति व्यवस्था ने अर्थव्यवस्था का स्थायी विकास सुनिश्चित किया जिससे बाजार विस्तृत हुआ। इसने भारत के निवेश हेतु पसंदीदा देश बनने में भी महती भूमिका अदा की। भारत की एफडीआई नीति प्रणाली का संचालन गतिशीलता से होता है। जरूरतों और निवेशकों की अपेक्षा के मद्देनजर समय-समय पर इसकी समीक्षा की जाती रही है। इस प्रक्रिया के एक भाग के रूप में एफडीआई नीति को निरंतर क्रमिक रूप से उदार बनाया जा रहा है, ताकि ज्यादा से ज्यादा उद्योगों में स्वत: अनुमोदित मार्ग के तहत एफडीआई को मंजूरी दी जाए। सन् 2000 में सरकार ने ज्यादातर गतिविधियों के लिए स्वत: अनुमोदित मार्ग से शत-प्रतिशत तक के एफडीआई को मंजूरी दी। साथ ही, उन क्षेत्रों मे जहां स्वत: अनुमोदित मार्ग मौजूद नहीं था या जिन क्षेत्रों में सीमित एफडीआई था, उनके लिए एक छोटी सी ‘नकारात्मक सूची’ अधिसूचित की गई। तब से आहिस्ता-आहिस्ता एफडीआई नीति को सरल और युक्तिसंगत बनाया गया है और कई अन्य क्षेत्रों को विदेशी निवेश के लिए खोला गया है।
एफडीआई नीति में हुए हालिया बदलाव
भारत को लगातार आकर्षक और निवेशकों के अनुकूल बनाने हेतु हाल में एफडीआई नीति प्रणाली में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं। फरवरी 2009 में, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विदेशी निवेश की गणना (प्रेस नोट 2 और 4) के लिए देश की एफडीआई व्यवस्था में ‘स्वामित्व’ और ‘नियंत्रण’ का युग्म-सिद्धांत केंद्रीय सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया। इससे भारतीय कंपनियों में विदेशी निवेश या ‘डाउनस्ट्रीम’ निवेश पाने के लिए सरकार की या विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड (या अन्य कुछ) की मंजूरी हासिल करने का आवेदन सरल, एकरूप और समान नियमों वाला हो। संवेदनशील क्षेत्रों में अनिवासी इकाइयों को स्वामित्व या नियंत्रण के हस्तांतरण पर 2009 का ‘प्रेस नोट-3’ लाया गया। 2009 के प्रेस नोट-6 ने लघु और सूक्ष्म उद्यमों (एसएमई) में एफडीआई प्रवेश को उदार बनाया है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि अब एसएमई में एफडीआई की अनुमति है, हालांकि अन्य उपयोगी नियमन बने रहेंगे। 2009 के प्रेस नोट के जरिए रॉयल्टी का समस्त भुगतान, प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के लिए एकमुश्त फीस और स्वत: अनुमोदित मार्ग के तहत ट्रेडमार्क या ब्रांडनेम का उपयोग बगैर सरकारी अनुमति के करने का प्रावधान किया गया है।
वर्ष 2010 में सरकार ने 2010 के प्रेस नोट-1 के जरिए निर्णय लिया कि अब 1,200 करोड़ रुपये से अधिक की विदेशी पूंजीनिवेश की विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड (एफआईपीबी) की सिफारिश को ही आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। इससे पहले यह सीमा आधी यानी 600 करोड़ रुपये की थी। इस नोट के जरिए कई श्रेणियों को सरकारी मंजूरी लेने से छूट दे दी गई।
एफडीआई नीति का एकत्रीकरण
सरकार ने 31 मार्च, 2010 को एफडीआई पर मौजूद सभी विनियमनों का एक दस्तावेज में एकत्रीकृत करने और इसे प्रकाशित करने के रूप में एक बड़ा कदम उठाया। एफडीआई नीति पर मौजूद सभी सूचनाओं की उपलब्धता एक ही जगह सुनिश्चित करने के लिए ऐसा किया गया है। सरकार के इस कदम से विदेशी निवेशकों और क्षेत्रीय नियामकों के बीच विदेशी निवेश नियमों की बेहतर समझ बनेगी और परिणाम बहुत साफ होंगे। इस दस्तावेज को हर छह महीने में नवीकृत किया जाएगा। 30 सितंबर, 2010 को दस्तावेज का संशोधित दूसरा संस्करण जारी किया गया।
एफडीआई नीति पर अंशधारकों से विचार-विमर्श
सरकार ने अब अंशधारकों से विचार-विमर्श की शुरुआत की है। इस प्रक्रिया के तहत क्षेत्रीय नीतियों समेत एफडीआई नीति के विभिन्न पहलुओं पर सुझाव आमंत्रित किए हैं। खुदरा और रक्षा क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, भारत में मौजूद उपक्रम या गठबंधन के मामले में विदेशी या तकनीकी सहयोग की मंजूरी, सीमित उत्तरदायित्व साझेदारी (एलएलपी) में एफडीआई आदि मसलों पर विमर्श पत्र अंशधारकों के सुझावों के लिए जारी की जा चुकी है।
औद्योगिक नीति और संवर्द्धन विभाग
औद्योगिक नीति और संवर्द्धन विभाग निवेश बढ़ाने के लिए कई तरह के कदम उठा रहा है। इसमें संयुक्त आयोग की बैठकों का आयोजन, व्यापार और निवेश संवर्द्धन कार्यक्रम का संगठन, परियोजना प्रबंधन, क्षमता निर्माण, जी2बी (गर्वनमेंण्ट टू बिजनेस) पोर्टल या ई-बिजनेस पोर्टल की स्थापना, निवेश संवर्द्धन के लिए देश केंद्रित डेस्क की स्थापना, मल्टीमीडिया-ऑडियो-विजुअल अभियान का आयोजन, निवेश संवर्द्धन को समर्पित एजेंसी का सृजन आदि उपाय शामिल हैं। केंद्रित, विस्तृत और संगठित रूप में भारत में विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए ‘इन्वेस्ट इंडिया’ नामक समर्पित निवेश संवर्द्धन एजेंसी 23 दिसंबर 2009 से शुरू की गई है।
भारत की वैश्विक स्थिति
सरकारी प्रयासों और उदारीकरण के उपायों का बेहतर परिणाम निवेशकों की जबरदस्त प्रतिक्रिया और 2003-04 से एफडीआई पूंजी के प्रवाह में खासी वृद्धि के रूप में मिला। तब से पिछले वित्त वर्ष यानी 2009-10 तक एफडीआई लगभग 13 गुना बढ़ गया था। एफडीआई गणना की अंतरराष्ट्रीय पद्धति के अनुसार भारत में 2009-10 के दौरान लगभग 37.18 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आया। वैश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद पिछले तीन साल में देश में एफडीआई आगमन लगभग समान बना रहा। यह स्थिति तब है जब अंकटाड की विश्व निवेश रिपोर्ट, 2009 के अनुसार 2008 में पूरी दुनिया में एफडीआई आगमन में 2007 के मुकाबले 14 फीसदी की भारी कमी हुई। 2007 में एफडीआई का स्तर 1979 अरब डॉलर पर था जो 2008 में घटकर 1697 अरब डॉलर हो गया। बाद में अंकटाड ने वर्ष 2009 में भी एफडीआई प्रवाह में वर्ष 2008 के मुकाबले 30 फीसदी की कमी का अनुमान व्यक्त किया। वहीं अंकटाड की रिपोर्ट के अनुसार, एफडीआई प्रवाह की वैश्विक तालिका में वर्ष 2001 में भारत का स्थान 32 था जो 2009 आते-आते 9 हो गया। इसी रिपोर्ट के मुताबिक, विकासशील देशों में एफडीआई प्रवाह के लिहाज से भारत की रैंकिंग 2005 में 13 थी, जो 2009 में 4 हो गई है। वर्ष 2005 में भारत का एफडीआई प्रवाह दुनिया के एफडीआई प्रवाह का महज 0.78 प्रतिशत था, जो 2009 में 3.11 प्रतिशत हो गया है।
भारत को आज पूरी दुनिया में सबसे आकर्षक निवेश स्थल के रूप में आंका जा रहा है। अंकटाड की विश्व निवेश रिपोर्ट, 2010 ने अपने विश्लेषण में अनुमान जताया है कि 2010-12 के दौरान भारत एफडीआई के लिहाज से विश्व में दूसरा सबसे आकर्षक देश रहेगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2009-11 के दौरान दुनिया के 5 सबसे आकर्षक देशों में चीन शीर्ष पर, भारत दूसरे एवं ब्राजील, अमरीका और रूसी महासंघ क्रमश: तीसरे, चौथे और पांचवें स्थान पर रहेंगे। जापान बैंक फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन की ओर से 2009 में जापानी निवेशकों के मध्य किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार विदेशी कारोबार संचालन के मामले में भारत दूसरा आशाजनक स्थान बना हुआ है।
जीडीपी विकास की अपनी तीव्रता बनाए रखने के लिए भारत को एफडीआई प्रवाह का आकार बड़ा बनाए ही रखना होगा।
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भारत में जैव आयुर्विज्ञान अनुसंधान के सौ साल-देवेन्द्र उपाध्याय*
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की स्थापना सन् 1911 में इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (आईसीएमआर) के रूप में की गयी थी, जिसे देश की स्वतंत्रता के बाद सन् 1949 में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) नाम दिया गया। परिषद 99 वर्ष पूरा कर 15 नवंबर 2010 से अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रही है। देश में जैव आयुर्विज्ञान अनुसंधान को बढ़ावा देने में परिषद का महत्वूर्ण योगदान रहा है क्योंकि वह देश की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को समझने तथा अनुसंधान के माधयम से उनका निराकरण खोजती है। आईसीएमआर नेटवर्क से जुड़े संस्थानों तथा इस नेटवर्क के बाहर के अनेक संस्थानों के अनुसंधान कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न बीमारियों के निदान के लिए परिषद लगातार कार्य कर रही है।
परिषद द्वारा एक्स्ट्राम्युरल अनुसंधान को विभिन्न माध्यमों से बढ़ावा दिया जाता है। मेडिकल कालेजों, विश्वविद्यालयों और अन्य शोध संस्थानों के चुने हुए विभागों में मौजूदा विशेषज्ञता और मूलभूत ढांचे की सहायता से शोध के विभिन्न क्षेत्रों में उन्नत अनुसंधान केंद्रों की स्थापना की जाती है। इसके अतिरिक्त टास्क फोर्स अध्ययन तथा देश के विभिन्न भागों में परिषद से गैर-संबद्ध अनुसंधान संस्थानों में वैज्ञानिकों के वित्तीय सहायता हेतु प्राप्त आवेदनों के आधार पर ओपन एंडेड अनुसंधान शामिल हैं।
आईसीएमआर नेटवर्क में चार क्षेत्र हैं, जिनमें उत्तरी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र तथा पश्चिमी क्षेत्र शामिल हैं। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
आईसीएमआर के 18 राष्ट्रीय संस्थान क्षयरोग, कुष्ठरोग, हैजा तथा अतिसारीय रोग, एड्स सहित विषाणुज रोग, मलेरिया, कालाजार, रोगवाहक नियंत्रण, पोषण, खाद्य एवं औषध विष विज्ञान, प्रजनन, प्रतिरक्षा, रुधिर विज्ञान, अर्बुद विज्ञान, आयुर्विज्ञान सांख्यिकी आदि जैसे स्वास्थ्य के विशिष्ट विषयों पर अनुसंधान करते हैं। इसके 6 क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र तथा 5 इकाइयां क्षेत्रीय स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने से संबद्ध हैं, जिनका उद्देश्य देश के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में शोध क्षमताओं को तैयार करना तथा तथा उन्हें सुदृढ़ बनाना है।
जैव आयुर्विज्ञान अनुसंधान में मानव संसाधन विकास को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बढ़ावा दिया जाता है। इनमें जूनियर व सीनियर फैलोशिप तथा रिसर्च एसोसिएट के माध्यम से रिसर्च फैलोशिप, अल्पकालिक विजिटिंग फैलोशिप; अल्पकालिक रिसर्च स्टूडेंटशिप, विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं कार्यशालाओं का संचालन तथा विदेश में आयोजित सम्मेलनों में भाग लेने हेतु यात्रा के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना आदि प्रमुख है। इसके अलावा सेवा- निवृत्त वैज्ञानिकों एवं शिक्षकों को जैव आयुर्विज्ञान के विशिष्ट विषयों पर शोध कार्य करने अथवा जारी रखने के लिए इमेरिट्स साइंटिस्ट का पद दिया जाता है। स्वास्थ्य विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत भारतीय जैवआयुर्विज्ञान वैज्ञानिकों (बायोमैडिकल सांइटिस्टों) को उनके विशिष्ट योगदान के लिए परिषद द्वारा पुरस्कार एवं पारितोषिक प्रदान कर सम्मानित किया जाता है।
परिषद् में मौलिक आयुर्विज्ञान प्रभाग, जानपदिक रोग विज्ञान एवं संचारी रोग प्रभाग, अंसचारी रोग प्रभाग, प्रजनन स्वास्थ्य और पोषण प्रभाग तथा प्रकाशन एवं सूचना प्रभाग हैं। स्वास्थ्य प्रणाली अनुसंधान सेल, ट्रांसलेशनल अनुसंधान यूनिट, सामाजिक एवं व्यवहारात्मक अनुसंधान यूनिट, औषधीय पादप यूनिट तथा अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रभाग भी परिषद के प्रमुख यूनिट हैं। जनशक्ति विकास प्रभाग द्वारा जैव सांख्यिकी सहित लाइफ सांइसेज और समाज विज्ञान में पीएचडी करने के लिए जूनियर रिसर्च फैलोशिप प्रदान करने हेतु अभ्यर्थियों के चयन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक परीक्षा आयोजित की जाती है।
परिषद ने कुष्ठरोग, कालाजार तथा क्षयरोग जैसी बीमारियों पर अपना विशेष ध्यान केंद्रित किया है। भारत में ऐसी अनेक बीमारियां हैं जिनको सामान्यतया गंभीरता से नहीं लिया जाता, लेकिन परिषद ने हाल के वर्षों में ऐसी बीमारियों पर किये जाने वाले अनुसंधान के लिए 60 प्रतिशत से अधिक वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी है। परिषद गरीबों तथा मध्यम वर्ग के लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर हल करने की दिशा में अग्रसर है।
परिषद ने वर्ष 2009-10 तथा वर्ष 2010-11 के दौरान (दिसंबर 2010 तक) अपने विभिन्न संस्थानों एवं केंद्रों में 26 ट्रांसलेशनल यूनिट स्थापित किये हैं। 52 प्रौद्योगिकियों/प्रक्रियाओं की पहचान ट्रांसलेशन प्रोसेस के पहले चरण में की जा चुकी है तथा वर्तमान वर्ष में इन पर कार्यवाही शुरू हो चुकी है। अन्य 20 समीक्षाधीन हैं।
अनुसंधान ढांचे को मजबूत करना
हाल के वर्षों में आईसीएमआर ने अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं जो देश में अनुसंधान आधार मजबूत करने की दिशा में उल्लेखनीय कदम है। इनमें मेडिकल कालेजों, अनुसंधान संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों आदि को 750 एक्स्ट्राम्युरल रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की गयी, जिनमें 500 प्रोजेक्ट गत डेढ़ वर्ष में वित्त पोषित किये गये। वर्ष 2007 से अब तक 557 जूनियर रिसर्च फैलो का चयन/ वित्तीय सहायता प्रदान की गयी। इनमें 110 का चयन वर्ष 2010 में किया गया। 450 नये सीनियर रिसर्च फैलो तथा 2009-10 से प्रारंभ पोस्ट डाक्टरल फैलोशिप के अंतर्गत 30 पोस्ट डाक्टरल फैलो का चयन किया गया।
परिषद से जो वैज्ञानिक संबद्ध नहीं हैं उनके लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी के लिए 2010 से वित्तीय सहायता की नई योजना शुरू की गयी है, जिसके अंतर्गत 175 युवा वैज्ञानिकों को वित्तीय सहायता उपलब्ध की जा चुकी है।
आधुनिक प्रौद्योगिकी
नैनो-मेडीसिन तथा स्टैम सैल अनुसंधान को प्रोत्साहन देने के लिए मानवीय स्वास्थ्य हेतु उम्मीद्वारों की पहचान की गयी। भारत के बालिगों में विकसित नार्मेटिव वैल्यूज के अध्ययन के लिए पहली बार मल्टी साइट व्यापक अध्ययन शुरू किया गया। थैलेसेमिया के मौलेक्युलर करैक्टाराइजेशन तथा सिकल सैल अनेमिया के प्रशिक्षण का कार्य वलसाड, बंगलौर, लुधियाना, नागपुर एवं कोलकाता केन्द्रों द्वारा सफलतापूर्वक पूरा किया गया।
पूर्वोत्तार राज्यों के लिए पहल
सभी 8 पूर्वोत्तर राज्यों में मधुमेह की व्यापकता के अध्ययन हेतु सर्वे किया गया। सौ से अधिक एक्सट्राम्युलर प्रौजेक्ट पर कार्य प्रगति पर है। परिषद के डिब्रूगढ़ केंद्र में ऐसे क्षयरोगियों की पहचान की गयी जो क्षय रोग निरोधक इलाज का लाभ नहीं ले रहे थे तथा इससे उनके फेफड़ों के खराब होने का खतरा हो सकता है। गुवाहाटी में पूर्वोत्तार राज्यों के छात्रों के लिए जूनियर रिसर्च फैलोशिप परीक्षा केंद्र की स्थापना की गयी।
गैर संचारी बीमारियां
देश के 16 केंद्रों से अस्थमा की व्यापकता की जानकारी एकत्र की गयी। मोटापे पर अध्ययन की शुरूआत की गयी तथा पंजाब सरकार के सहयोग से संधिवात बुखार एवं संधिवात हृदयरोग बीमारियों (आरएफ-आरएचडी) के लिए स्टेट कंट्रोल कार्यक्रम शुरू किया गया। भोपाल में गैस प्रभावित आबादी के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पर्यावरण स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान की स्थापना की गयी है। देश के विभिन्न भागों में कैंसर पर अनुसंधान कार्यक्रम संचालित करने के अलावा अनेक कार्यक्रम शुरू किये गये हैं।
जनजाति स्वास्थ्य
परिषद ने अपने 7 संस्थानों/केंद्रों में जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान फोरम शुरू किये हैं। इसमें उनके पोषण से संबंधित ब्यौरों को आंकड़ों के आधार पर तैयार कर उनमें मलेरिया तथा उच्च रक्त चाप आदि के नियंत्रण के लिए कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में फ्ल्यूओरोसिस प्रिवेंशन एंड कंट्रोल के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया गया है। हेप्टाइटिस-बी टीकाकरण कार्यक्रम अंडमान में परिषद द्वारा किये गये अनुसंधान कार्यक्रम के आधार पर प्रांरभ किया गया है।
संचारी रोग
परिषद ने विभिन्न संचारी रोगों के निदान के लिए भी अपने विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से कार्य प्रांरभ किया है। संशोधित राष्ट्रीय क्षयरोग नियंत्रण कार्यक्रम में परिषद का महत्वपूर्ण योगदान है।वायरस रोगों तथा एच1एन1 इन्फ्ल्यूंजा की रोकथाम तथा उनके निदान के लिए परिषद अपने नेटवर्क के माधयम से कार्य कर रही है
राष्ट्रीय स्वास्थ्य अनुसंधान नीति
परिषद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य अनुसंधान नीति का एक मसौदा तैयार किया है जिस पर पूरे देश में विचार किया जा रहा है। इसमें स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नालेज मैनेजमेंट पालिसी पर विचार किया जा चुका है। इसके साथ ही अनेक गाइड लाइन विकसित एवं तैयार की जा चुकी हैं।
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सभी राष्ट्रों में हरित उपभोक्तावाद एवं पर्यावरण संस्कृति के संवर्धन के लिए अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण अनुकूल उत्पाद मेला=समीर पुष्प
जनसंख्या संसाधन के बढ़ते असंतुलन और वैश्विक तपन के मंडराते खतरे को देखते हुए संपोषणीय रहन-सहन के लिये और अधिक फिक्रमंद होने की आवश्यकता है । इसका विकल्प यही है कि पर्यावरण जनित प्रौद्योगिकियां, पर्यावरण अनुकूल उत्पाद और स्वच्छ पर्यावरणीय ऊर्जा को अपनाया जाए । समय की मांग है कि पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली अपनायी जाए और शून्य प्रदूषण उत्सर्जन वाली स्वच्छ पर्यावरणीय ऊर्जा का उपयोग किया जाए । स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन से प्रदूषणकारी अथवा ऊर्जा के अपव्ययी रूप से छुटकारा मिलता है और वैश्विक तपन से बचने के लिए आवश्यक पर्यावरण अनुकूल मार्ग सुनिश्चित होता है । भारत जैसे-जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर कदम बढ़ाता जा रहा है, हम स्वच्छ और हरित उत्पादों की बढ़ती आवश्यकता के प्रति और अधिक सचेत होते जा रहे हैं । हमें यह भी पता है कि पारम्परिक पद्धतियां और सिद्धांत आगे जाकर और अधिक निष्प्रभावी हो सकते हैं , इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि वैश्विक स्पर्धा में आगे बने रहने के लिये सूक्ष्म और बृहद दोनों ही स्तरों पर पर्यावरण अनुकूल उत्पादकता को सुदृढ़ बनाया जाए । इसीलिए, भारत सातवें अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण अनुकूल उत्पाद मेले (इको-प्रोडॅक्ट्स इंटरनेशल फेयर ईपीआईएफ 2011 का आयेाजन कर रहा है, ताकि वह अपने पर्यावरण जनित किफायती ऊर्जा उत्पादों को दुनिया को दिखा सके और शेष विश्व के साथ नवीनतम अधिक स्वच्छ और हरित प्रौद्योगिकी का आदान-प्रदान कर सके ।
नई दिल्ली के प्रगति मैदान में भारतीय व्यापार संवर्धन संगठन (इटपो) द्वारा 10 से 12 फरवरी, 2011 तक आयोजित किये जाने वाले इस मेले का औपचारिक उद्घाटन केन्द्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री श्री आनंद र्श्मा ने शुक्रवार 11 फरवरी को किया । इस मेले का आयेाजन वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग, टोकियो (जापान) स्थित एशियाई उत्पादकता संगठन (एपीओ), राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद (एनपीसी) और भारतीय उद्योग परिसंघ ने मिलकर किया । ईपीआईएफ के इस संस्करण की विषयवस्तु थी संपोषणीय ऊर्जा और पर्यावरण के लिए हरित उत्पादकता । इस मेले के समानान्तर इसी विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन भी किया गया।
ईपीआईएफ-2011 मुख्य रूप से पर्यावरण कुशलता और ऊर्जा कौशल के विचारों और नजरिये पर ही केन्द्रित रहा । सम्मेलन में पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित निवेश और हानि लाभ के संदर्भ में सक्रियता से विचार-विमर्श हुआ । वर्तमान में आम उपभोक्ताओं और कंपनियों सहित सभी हितग्राही उत्पाद सुधारों, उत्पादों के रूपांकन, व्यवहारिक नवाचार और अभिनव प्रणालियों पर अधिक जोर देते हैं । निजी क्षेत्र की कंपनियों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भी पर्यावरण के अनुकूल हरित संसाधनों के उपार्जन को अधिक प्रश्रय दिया जा रहा है । भविष्य अब हरित उपभोक्तावाद और हरित विकास तथा पर्यावरण के अनुकूल नगरों और औद्योगिक पार्कों का ही है, जो समूची धरती पर सभी देशों की सीमाओं से परे पर्यावरण अनुकूल संस्कृति का संवर्धन करेगा ।
पर्यावरण अनुकूल उत्पादों उन उत्पादेां और सेवाओं को कहा जाता है जो पर्यावरण के कानूनों का अनुपालन करते हों और जो पर्यावरण हितैषी हों और पर्यावरण की रक्षा के प्रति निर्माताओं और उत्पादों के स्वैच्छिक प्रयासों को परिलक्षित करते हों । यदि हम भारत के बजट पर नजर डालें तो पाएंगे कि वर्तमान में, ऊर्जा के कुल उत्पादन में अक्षय ऊर्जा का योगदान चार प्रतिशत से भी कम है । भारत के कुल ऊर्जा उत्पादन में अक्षय ऊर्जा का योगदान 2015 तक 10 प्रतिशत और 2020 तक 15 प्रतिशत बढ़ सकता है । चूंकि पारम्परिक ऊर्जा के हमारे साधन व स्रोत दुर्लभ होते जा रहे हैं, अक्षय ऊर्जा के साधनों का महत्व बढ़ गया है । ऊर्जा की बढ़ती आवश्यकताओं और संपोषणीय जीवन में संतुलन के लिये हमको अपने में तेजी से बदलाव लाना होगा ।
एशिया की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी ईपीआईएफ-2011 में ऐसी उन्नत, पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों, उत्पादों और सेवाओं का प्रदर्शन किया गया, जिससे उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता में सतत वृद्धि होती रहे । मेले में पर्यावरण हितैषी उत्पादों और सेवाओं के क्षेत्र में व्यापारिक सहयोग और जागृति को बढ़ावा देने के अवसरों की कोई कमी नहीं रही । इस मेले में ग्रीन परचेजिंग नेटवर्क अर्थात पर्यावरण हितैषी उत्पादों के क्रय-विक्रय का संजाल स्थापित करने के अलावा ईको-लेबलिंग योजना की शुरूआत भी हुई ।
इस मेले का एक उल्लेखनीय पक्ष था पर्यावरण अनुकूल सामग्रियों , घटकों और उत्पादों का संवर्धन । इससे भारत न केवल पर्यावरण की रक्षा कर सकेगा, बल्कि बाजार में उसकी छवि एक ऐसे देश के रूप में उभरेगी, जो पर्यावरण के प्रति पर्याप्त संवेदनशील है ।
ईपीआईएफ-2011 के आयोजन से भविष्य में जो लाभ होने की संभावाना है, उन्हें अग्रलिखित रूप से वर्णित किया जा सकता है –
· अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण अनुकूल उत्पादों के निर्माताओं के साथ क्रय-विक्रय के व्यापक नेटवर्क की स्थापना और प्रदर्शकों के उत्पादों/सेवाओं के बारे में अधिक जानकारी और व्यापक मीडिया प्रसारण के अतिरिक्त ,हरित उद्यमियों के लिये सशक्त विचार ।
· समाज और लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन में पर्यावरण अनुकूल उत्पादों/सेवाओं की पहचान और उपयोग के लिए अधिक ज्ञान एवं जागरूकता प्राप्त करना ।
· हरित वस्तुओं की प्रापण प्रणाली और स्वच्छ एवं हरित प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के संवर्धन के लिये येाजनाएं तैयार करने के लिए उद्योगों , सरकारों और सार्वजनिक एजेंसियों को प्रेरित करना ।
· टोकियो स्थित एशियाई उत्पादकता संगठन (एपीओ) के उत्पादों को बाजार में उतारने का रास्ता तैयार होगा ।
ईपीआईएफ- 2011 का जीवनाधार स्थायी विकास और संपोषणीय रहन- सहन की अवधारणा है । इन ऊर्जा कौशल प्रौद्योगिकियों और उत्पादों के लाभों का दायरा न केवल उत्पादन और प्रचालन लागत में कमी तक सीमित है बल्कि इससे पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव में भी कमी आती है। ईपीआईएफ-2011 विकास और प्रगति के बीच न केवल पारिस्थितिकीय बल्कि संपोषणीय समरसता लाने का प्रयास है । वैश्विक स्तर पर हमारा सरोकार केवल इस बात से है कि हमारे जीवन का स्तर ऊंचा रहे और हममें से हर एक व्यक्ति प्रकृति के संरक्षण में अपना-अपना अंशदान करे। ईपीआईएफ-2011 के आयोजन से भारत ने इस दिशा में एक सुदृढ़ कदम उठाया है । इस प्रकार के प्रयासों की और अधिक आवश्यकता है, ताकि भावी पीढ़ी के लिये हम संपोषणीय पर्यावरण अनुकूल संस्कृति की धरोहर छोड़ सकें ।
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पूर्वानुमान सेवाओं में सुधार=डा0 शैलेश नायक
मौसम , जलवायु और सामाजिक हितों से जुड़ी सेवाओं के लिए जोखिमों के पूर्वानुमान के महत्व को स्वीकारते हुए पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने पृथ्वी प्रणाली (वायुमंडल, हाइड्रोस्फेयर, क्रायोस्फेयर, जियोस्फेयर और बायोस्फेयर ) के प्रति समझ में सुधार की दिशा में एक समन्वित तरीके से अपनी गतिविधियों पर जोर दिया है । विभिन्न घटकों के अध्ययन का उद्देश्य उनके बीच अंतक्रियाओं को बेहतर ढंग से समझना है, जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं और मानवोत्पत्ति संबंधी गतिविधियों द्वारा प्रभावित हो और जिनसे पूर्वानुमान सेवाओं में सुधार हो। पृथ्वी प्रणाली विज्ञान संगठन एक मिशन के रूप में काम करता है , जहां पिछले एक वर्ष के दौरान महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं
मौसम की भविष्यवाणी और सेवाएं
सांख्यिकी मौसम भविष्यवाणी के प्रारूपों के इस्तेमाल से लघुकालिक (तीन दिनों तक) और मध्यकालिक (पाँच से सात दिनों तक) पूर्वानुमान किया जाता है । वर्ष के दौरान टी 382 एल 64 प्रारूप पर आधारित एक नई और अत्यधिक स्पष्ट जीएफएस (भूमंडल पूर्वानुमान प्रणाली) और विकिरण मापन सहित इसके सहायक आंकड़ा मापन प्रणाली का काम शुरू हो गया है । इसके बल पर 35 किलोमीटर दूरी तक की विश्लेषण प्रणाली में सुधार हुआ । इसके अलावा कटिबंधीय दबावों, बिजली और गरज के साथ आंधी जैसी मौसम प्रणालियों के पुर्वानुमान के लिए एक मेसो-स्केल मॉडल (27 किलोमीटर) डब्ल्यू आरएफ मॉडल पूर्वानुमान प्रणाली तैयार की गई । गंभीरतापूर्वक मौसम के विशेष अध्ययन के लिए बहुत स्पष्ट विश्लेषण पर आधारित डब्ल्यू आरएफ प्रणाली स्थापित की गई है । इसकी शुद्धता लगभग 70-75 प्रतिशत है । एक प्रायोगिक आधार पर 4 डी वीएआर के इस्तेमाल से एक वैश्विक प्रारूप मापन प्रणाली स्थापित की जा रही है । इसके आधारभूत पूर्वानुमान मानकों में वर्षा, वायु की गति, वायु की दिशा,आर्द्रता और तापमान शामिल हैं । इस वर्ष पूर्वानुमान प्रणालियों को आपस में जोड़कर एक महत्वपूर्ण प्रणाली तैयार करना एक बड़ी उपलब्धि रही है । इसके अंतर्गत विभिन्न उपकरणों और पर्यवेक्षण प्रणालियों को आपस में जोड़कर एक सेंट्रल डाटा प्रोसेसिंग प्रणाली के साथ जोड़ दिया गया । इसके बल पर देशभर में सभी पूर्वानुमान कर्मियों को सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित एक अत्याधुनिक पूर्वानुमान प्रणाली उपलब्ध हुई । इसमें सभी पर्यवेक्षणों को एक साथ जोड़ना और समुचित विश्लेषण के बाद लोगों के लिए मौसम पूर्वानुमान प्रसारित करना शामिल है । भूस्खलन , मौलिक पूर्वानुमान , प्रबलता आदिऐसे मानक हैं जिनके आधार पर 24 से 36 घंटे पूर्व चक्रवात के बारे में अनुमान जारी किया जाता है ।
कृषि आधारित मौसम विज्ञान सेवाएं
देश की लगभग 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, इसलिए मौसम आधारित कृषि से जुड़े सुझाव काफी महत्वपूर्ण हैं । इस बात को ध्यान में रखते हुए कृषि आधारित मौसम विज्ञान की 130 क्षेत्रीय इकाइयों के लिए 35 किलोमीटर एमएमई प्रणाली के आधार पर नियमित रूप से वर्षा , अधिकतम और न्यूनतम तापमान, बादल वाले कुल्क्षेत्र , भूतल पर आपेक्षिक आर्द्रता और वायु का लघुकालिक पूर्वानुमान जारी किया जाता है । इसके माध्यम से फसल बोने, उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई करने और फसल कटाई के लिए उपयुक्त समय पर जानकारी दी जाती है । किसानों के वास्ते 575 से भी अधिक जिलों के लिए सप्ताह में दो बार बुलेटिन जारी किए जाते हैं । राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे बुलेटिन के बल पर नीति संबंधी निर्णय भी लिए जाते हैं । ऐसे सुझाव पत्र पत्रिकाओं, इलेक्ट्रानिक मीडिया और बहुभाषा वेब पोर्टलों के माध्यम से प्रचारित किए जाते हैं । मोबाइल फोन के माध्यम से स्थान आधारित सेवाओं का विकास होना काफी सफल रहा है, फिलहाल 12 लाख किसानों ने इस सेवा की मांग की है।
विमानन सेवाएं धुंध पूर्वानुमान
जाड़े के दिनों में धुंध से विमानन सेवाएं काफी प्रभावित होती हैं । कुहासे की तीव्रता और अवधि की निगरानी , उसका अनुमान और प्रसार काफी महत्वपूर्ण है । सभी हवाई पट्टियों के बारे में हवाई पट्टी दृश्यता रिकार्डरों के माध्यम से दृश्यता संबंधी स्थितियों के बारे में जानकारी मिलती है । मौसम विज्ञान (9 से 30 घंटे के पूर्वानुमान ) प्रत्येक 30 मिनट पर रिपोर्ट आती है । कुहासे के बारे में अगले 6 घंटे के लिए और 12 घंटे के परिदृश्य के बारे में जानकारी दी जाती है । अगले दो घंटे के लिए पूर्वानुमानों के लक्षण प्राप्त करने की जानकारी वेबसाइटों , एसएमएस , आईवीआरएस, फोन, फैक्स आदि के माध्यम से भी उपलब्ध कराई जाती है । वर्ष 2009-10 के दिसम्बर और जनवरी माहों के लिए पुर्वानुमान की शुद्धता छूट है क्रमश: 94 प्रतिशत और 86 प्रतिशत रही, जो वर्ष 2008-09 के दिसम्बर और जनवरी माहों की क्रमश: 74 प्रतिशत और 58 प्रतिशत शुद्धता की तुलना में काफी अधिक है ।
पर्यावरण आधारित सेवा इलाहाबाद , जोधपुर, कोडइकनाल, मिनीकॉय, मोहनबाड़ी, नागपुर, पोर्ट ब्लेयर, पुणे श्रीनगर और विशाखापट्टनम में वायु प्रदूषण निगरानी केन्द्रों का एक नेटवर्क स्थापित किया गया है । यहां से वर्षा जल के नमूने लेकर उनका रासायनिक विश्लेषण किया जाता है और वायुमंडल के घटकों में दीर्घकालिक बदलावों का रिकार्ड तैयार करने के लिए वायुमंडलीय गंदलेपन का मापन किया जाता है । थर्मल पावर केन्द्रों , उद्योगों और खनन गतिविधियों से उत्पन्न वायु प्रदूषण के संभावित कुप्रभावों के मूल्यांकन से संबंधित विशेष सेवाएं भी प्रदान की जाती हैं विभिन्न्जलवायु और भौगोलिक स्थितियों में बहुविध स्रोतों का वायु की गुणवत्ता पर पड़ने वाले प्रभावों के लिए वायुमंडलीय विस्तार प्रणाली विकसित की गई है और इनका इस्तेमाल उद्योगों के लिए स्थानों का चयन करने तथा वायु प्रदूषण नियंत्रण संबंधी रणनीतियों को लागू करने में किया जाता है । एडब्ल्यूएस, डीडब्ल्यूआर आयोग और अन्य पर्यवेक्षण प्रणालियों के माध्यम से राष्ट्रमंडल खेल 2010 के लिए मौसम और वायु गुणवत्ता पूर्वानुमान का काम पूरा किया गया है।
मछुआरों को चेतावनी लगभग 70 लाख लोग भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों में रहते हैं । भारत का समुद्रतट लगभग 7500 किलोमीटर लंबा है । मछली पकड़ना इन लोगों की आजीविका का साधन है । मछली उत्पादन का केवल 15 प्रतिशत भाग जलाशयों द्वारा हो पाता है । मछलियों का पता लगाना और उसे पकड़ना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, क्योंकि मछलियों का समूह समुद्रतट से दूर स्थान बदलता रहता है और उसे ढूंढने में अधिक समय , धन तथा प्रयास की जरूरत होती है । मछलियों की अधिकता वाले संभावित क्षेत्रों के बारे में समय पर पूर्वानुमान प्राप्त हो जाने से मछलियों की खेाज में लगने वाले समय और प्रयासों में कमी लाने में मदद मिलती है, जो मछुआरा समुदाय के सामाजिक-आर्थिक हित के अनुकूल है । मछलियों को समुद्री जल के तापमान, लवणता, रंग, दृश्यता, जल में ऑक्सीजन की मात्रा आदि के रूप में जहां अनुकूल स्थितियां प्रतीत होती हैं, वे अपने आसपास के पर्यावरण के उस जलीय भाग की ओर शीघ्र ही चली जाती हैं । उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर समुद्रतल के तापमान के बारे में आसानी से पता चलता है, जो पर्यावरण का एक मानक संकेतक है । समुद्री हिस्से में उनके लिए खाने की चीजों की उपलब्धता पर भी उनका आगमन, पर्याप्तता और प्रवास निर्भर करता है । क्लोरोफिल-ए एक ऐसा संकेतक है जो मछलियों के लिए आहार की उपलब्धता का सूचक है । ये पूर्वानुमान नियमित रूप से एक सप्ताह में तीन बार जारी किए जाते हैं और महासागरीय स्थितियों के पूर्वानुमान के साथ तीन दिनों की अवधि के लिए मान्य हैं । ये चेतावनियां नौ स्थानीय भाषाओं और अंग्रेजी में वेब ई-मेल, फैक्स, रेडियो और टेलीविजन के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्डों और इनफॉर्मेशन किओस्कों के माध्यम से दी जाती हैं । एक अनुमान के अनुसार लगभग 40,000 मछुआरे इन चेतावनियों से लाभान्वित होते हैं । इसके बल पर काफी ईंधन और समय (60-70 प्रतिशत) की बचत होती है और वे प्रभावकारी तरीके से मछली पकड़ पाते हैं । यह अनुमान लगाया गया है कि इस दिशा में सफलता की दर 80 प्रतिशत के आसपास है ।
महासागरीय स्थिति का पूर्वानुमान
सांख्यिक प्रारूपों के इस्तेमाल से हिन्द महासागर के लिए यथासमय पूर्वानुमान तैयार करने का प्रयास प्रारंभिक चरण में है । फरवरी 2010 में शुरू की गई हिन्द महासागर पूर्वानुमान प्रणाली (इंडोफोस) में महासागरीय लहरों की ऊँचाई, लहर की दिशा, समुद्री सतह का तापमान, सतह की धारायें, मिश्रित तल की गहराई और 20 डिग्री सेल्सियस समताप की गहराई के बारे में अगले पाँच दिनों के लिए छ: घंटे के अंतराल पर पूर्वानुमान जारी करना शामिल है । इंडोफेस के लाभार्थियों में पारंपरिक और प्रणालीबद्ध मछुआरे, समुद्री बोर्ड, भारतीय नौसेना, तटरक्षक नौवहन कंपनियां और पेट्रोलियम उद्योग, ऊर्जा उद्योग तथा शैक्षिक संस्थान शामिल हैं । गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पुडुचेरी के लिए लहरों के पूर्वानुमान हेतु स्थान विशेष पर आधारित प्रारूप स्थापित किए गए हैं और बंदरगाह प्राधिकरणों द्वारा इनका व्यापक इस्तेमाल किया जाता है ।
खनन प्रौद्योगिकी
भारत महासागरीय खनिज संसाधनों के देाहन के प्रति इच्छुक रहा है । इसके लिए तीन उपकरणों- तत्काल मृदा जांच उपकरण, दूर से संचालन-योग्य वाहन (आरओवी) और गहरे समुद्र में रेंगनेवाली प्रणाली विकसित करने की जरूरत होती है । समुद्र के नीचे मिट्टी के गुणों की जांच के लिए उपकरण और आरओवी का 5300 मीटर की गहराई में अप्रैल 2010 में सफल परीक्षण किया गया । इस उपकरण के लिए पूरा-का-पूरा हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर तथा नियंत्रण प्रणाली अपने देश में ही विकसित की गई । तट के पास नेाड्यूल इकट्ठा करने वाले क्रॉलर का भी 450 मीटर की गहराई में परीक्षण किया गया है । समुद्र में 3000 मीटर की गहराई तक 100 मीटर क्रोड़ संग्रह की क्षमता वाली एक कोरिंग प्रणाली विकसित की गई है । इन्हें दर्शाए जाने की प्रक्रिया चल रही है । गैस हाइड्रेट के दोहन के लिए प्रौद्योगिकी विकास के एक हिस्से के रूप में यह उपकरण विकसित किया जा रहा है ।
हैचरी प्रौद्योगिकी
वाणिज्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रजातियों के लिए हैचरी प्रौद्योगिकी का विकास करना मछुआरों को एक वैकल्पिक रोजगार प्रदान करने के लिए एक प्रमुख क्षेत्र है । अंडमान स्थित हैचरी में काला मोती तैयार किया जाता है । समुद्री सजावटी मछलियों का उत्पादन करने के लिए प्रौद्योगिकी विकसित करने का काम पूरा किया गया है और क्लॉन मछलियों की आठ प्रजातियों और दमसेल मछलियों की दस प्रजातियों का इसके लिए चयन किया गया है । गैस्ट्रोपॉडों को चार प्रजातियों के उत्पादन, लार्वा विकास और मछलियों के बच्चों को सामूहिक तौर पर पालन करने की तकनीक को मजबूत किया गया है । यह प्रौद्योगिकी स्थानीय मछुआरों को उपलब्ध करायी गई है ।
जलवायु में बदलाव और परिवर्तन
इस कार्यक्रम के माध्यम से स्वास्थ्य, कृषि और जल जैसे क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभाव सहित जलवायु परिवर्तन से संबंधित अनेक वैज्ञानिक समस्याओं का हल किया जाता है । भारतीय क्ष्ेात्र के लिए विशेष रूप से संबंधित और वैश्विक प्रभाव वाले जलवायु परिवर्तन के लक्षित वैज्ञानिक पहलुओं की खोज करने और उनके मूल्यांकन के प्रयास के क्रम में जलवायु प्रारूप और गतिविज्ञान, भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय पहलुओं की जानकारी के लिए उपकरणों और जलवायु संबंधी रिकार्डों का इस्तेमाल, जलवायु संबंधी लघुकालिक और दीर्घकालिक निदान और पूर्वानुमान आदि कुछ ऐसे प्रमुख कार्यक्रम हैं, जिन पर काम शुरू किया गया है ।
ध्रुवीय विज्ञान
नवम्बर 2010 में आठ-सदस्यों वाले एक दल ने दक्षिणी ध्रुव तक पहले वैज्ञानिक अभियान में सफलता प्राप्त की । इस दल ने अभियान के दौरान कुल 4680 मिलोमीटर की दूरी तय की । इस दौरान वैज्ञानिकों ने बर्फ के नीचे ढ़की चट्टानों के अध्ययन के लिए विशेष राडार का इस्तेमाल किया । बर्फ के रासायनिक गुणों के अध्ययन के लिए बर्फ के क्रोड़ संग्रह किए तथा ग्लेशियरों में भूस्खलन की घटनाओं का अध्ययन किया ।
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